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________________ भूयो ठिदिअप्पाबहुगपरूषणा णवरि जोदिसिय याव सव्वट्ठा त्ति वेउब्वियका०-तेउ०-पम्मले० विदियपुढविभंगो। एवं वेउव्वियमि० । णवरि आयु० णत्थि । २५६. कम्मइ०-सम्मामि०-अणाहारग त्ति उक्कस्सभंगो । श्राहार०-आहारमि०उक्कस्सभंगो। _२५७. इत्थि०-णवुस. सव्वत्थोवा आयु० जह० हिदिवं० । यहिदिवं. विसे । मोह० जह हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । णाणाव०-दसणाव०अंतराइ जहहिदिबं० संखे०गु०। यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं जह हिदिवं० असंखे०गु० । यहिदिवं० विसे०। वेदणी० जहहिदिबं० विसे० । यहिदिवं० विसे। अवगदवे. मूलोघं । गवरि आयुगं पत्थि । एवं सुहुमस ७ । पवरि मोह० वज्जः । २५८.आभि०-सुद-प्रोधि० सव्वत्थोवा मोह जहविदिबं०। यहिदिबं० विसे। णाणाव०-दसणाव०-अंतराइ० जहहिदिव० सं०गु० । यदिबं० विसे० । णामागोदाणं जहहिदिबं० संगु० । यहिदिबं० विसे । वेदणी० जहहिदिवं० विसे । यहिदिवं० विसे । आयु० जहहिदिबं० सं०गु: । यहिदिबं० विसे० । एवं ओघिदं० इन सबके अल्पबहुत्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव वैक्रियिककाययोगी, पीत लेश्यावाले और पद्म लेश्यावाले जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका भङ्ग नहीं होता। २५६. कार्मणकाययोगी, सम्यगमिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंमें अल्पबहुत्वका मङ्ग उत्कृष्टके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। २५७. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें आयुकर्मका जघन्यस्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्यस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके मोहनीय कर्मको छोड़कर अल्पबहुत्व कहना चाहिए। २५८. श्राभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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