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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे मुक्कले०-सम्मादि०-खइग० । मणपज्जव०-संजद-सामाइ०-छेदो० श्रोधिभंगो। णवरि आयु० जह हिदिवं. असं०गु० । यहिदिवं० विसे०। परिहार० उक्कस्सोंगो । वेदगसम्मादि० विदियपुढविभंगो । उवसम० आयु. वज्ज मूलोघं । सासणे विदियपुढविभंगो । एवं जहएणयं समत्तं । २५६. जहएणुक्कस्सए पगदं। दुवि०–ोघे० आदे। अोघेण सव्वत्थोवा आयु. जह हिदिवं० । यहिदिवं० विसे । मोह० जहहिदिबं० सं०गु० । यहिदि० विसे । णाणाव०-दसणा०-अंतराइ० जह हिदिवं० सं०गु०। यहिदिवं० विसे । णामागोदाणं जह हिदिवं० सं०गु० । यहिदिव०विसे । वेदणीय जहहिदिवं०विसे । यहिदिवं० विसे । आयु उक्त हिदिवं. असं गु० । यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं उक्क हिदिव० सं०गु०। यहिदिवं. विसे० । तीसिगाणं उक्कस्सहिदिवं विसे । यहिदिबं. विसे। मोह. उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं. विसे । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०--कायजोगिओरालियका०-इत्थिल-पुरिस०-णवुस०-कोधादि०४-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०तगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मके सिवा शेषका अल्पबहुत्व मूलोघके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अल्पबहुत्व दूसरी पृथ्वीके समान है। इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। २५९. जघन्य उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसिय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, सञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले. चक्षदर्शनी, अचक्षदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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