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जहण्य-सामित्तपरूवणा
वरणफदि ० पज्जत्त० सागार - जा० सव्वविसुद्ध० जह० डिदि ० षट्टमा० । देवगदि०४ जह० द्विदि० कस्स० १ अण्ण० असरिण० सागार - जा० सव्वविसुद्ध ० जह० हिदि० वट्टमा० । आहार० - आहर०: र० अंगो० - तित्थय० जह० हिदि० कस्स० ? श्रएणद० अपुव्वकरणखवगस्स परभवियरणामाणं चरिमे जह० द्विदिबंधे वट्टमाणयस्स ।
स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह मनुष्यद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति चतुष्क के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर संशी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारक शरीर, श्राहारक आङ्गोपाङ्ग ओर तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परभवसम्बन्धी नामकर्म की प्रकृतियों के अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।
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विशेषार्थ - यहाँ श्रघसे किम प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है यह बतलाया गया है । बन्ध योग्य कुल प्रकृतियां १२० हैं । उनमेंसे पांच ज्ञानावरण आदि १७ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जिनका बन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्परायतक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित उक्त जीवको कहा है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका स्थितिबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरणके अपने अपने विवक्षित भाग तक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त जीवको कहा है। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थितिबन्ध क्षपक पूर्वकरण के अमुक भागतक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त जीवको कहा है। इस प्रकार ये सब मिलाकर २५ प्रकृतियाँ हुई। अब शेष रहीं चार आयुके बिना ९१ प्रकृतियाँ सो इनमेंसे देवगति और नरकगति सम्बन्धी जो प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध एकेन्द्रिय और विकलत्रयके नहीं होता इसलिए उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रसंज्ञी जीवको कहा है। ऐसी प्रकृतियाँ कुल ६ हैं ।
ये है -नरकद्विक, देवद्विक और बैकियिकद्विक । अब शेष रहीं ८५ प्रकृतियां सो यद्यपि इनका जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है पर एकेन्द्रियके अनेक भेद होनेसे एकेन्द्रियोंमें भी कौन-सा बादर पर्याप्त जीव किन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करता है इसका स्वतन्त्र रूपसे विचार किया है। उदाहरणार्थafrates और वायुकायिक जीव मरकर नियमसे तिर्यञ्च ही होते हैं, इसलिए तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और श्रातपका जघन्य स्थितिबन्ध बादर अग्निका यिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव ही करते हैं। तथा मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके न होनेके कारण इनका जघन्य स्थितिबन्ध बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव करते हैं। यही कारण है कि इन तिर्यञ्चगति श्रादि चार और मनुष्यगति आदि दो प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पृथक्-पृथक् उक्त जीवोंको कहा है । यद्यपि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्चगोत्रका भी बन्ध नहीं करते पर उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध एकेन्द्रियके न होकर क्षपक श्रेणिमें होता है इसलिए उसे यहाँ नहीं गिनकर जिन प्रकृतियोंका क्षपक सूक्ष्म साम्पराय में जघन्य स्थितिबन्ध होता है
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