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________________ २८६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे बादरएइंदिय० सव्वाहि पज्जत्तीहि सागार- जा० तप्पात्रोग्गविसुद्ध० जह० डिदि ० वट्टमा० । चदुसंज० - पुरिस० जह० डिदि ० कस्स १ अरण० खवगस्स अणियबादरसंप० पप्पणो चरिमे जह० हिदि० वट्ट० । गिरयायु० जह० द्विदि० कस्स ० ? अण्ण० पंचिंदिय० सरिण असरिण० सागार जा० तप्पात्रोग्गविसुद्ध ० जहरियाए बाधाए जहरण० द्विदि० वट्टमा० । तिरिक्खायु० जह० द्विदि० कस्स ? अएण एइंदि० बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सरिण० असरि० बादर • सुहुम० पज्जत्तापज्जत्त० सागार-जा० तप्पात्रोग्गसंकिलि० जह० आबाधाए ० अण्ण० जह० द्विदि० वट्टमा० । एवं मरणुसायु० । देवायु० जह० हिदि० कस्स० पंचिंदि० सरिण० असरिण० सागार-जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० जह० आबा ० जह० द्विदि० वट्टमा० । ११४. गिरयग० - रिया० जह० द्विदि० कस्स ? अ० अस स्सि सागार - जा ० तप्पा ओग्गविसुद्ध० । तिरिक्खग० तिरिक्खाणु० - उज्जो०- णीचा० जह० द्विदि० कस्स० • बादर० तेउ० वाउ० पज्जत्तस्स सागार - जा० सव्वविसु ० । मसग ० - मणुसार जह० द्विदि० कस्स० १ अएण बादरपुढवि० उ० बादर つ अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम - वाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। चार संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्ति क्षपक जो अपने-अपने अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और संक्षी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और जघन्य श्रबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय संशी या असंशी, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त या अपर्याप्त जो साकार 'जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार उक्त जीव मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर पञ्चेन्द्रिय संशी या असंशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधा के साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । ११४. नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर संशी जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त दो प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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