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जहण्ण-सामित्तपरूवणा विमुद्धस्स । आहार० मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं उक्स्ससामित्तं समत्तं ।
११३. जहएणए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-चदुदंसणासादावे-जसगि०-उच्चागो०-पंचंत० जहएणो हिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स खवगस्स सुहुमसांपराइगस्स चरिमे जहएणए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स । पंचदंसणामिच्छत्त-बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा-क-समचदु०
ओरालि अंगो०-वजरिसभ०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. बादरएइंदियस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागार-जा० सुदोवजोगजुत्तस्स सव्वविसुद्धस्स जहएणहिदिवं० वट्ट । असादा०इत्थिवे०-णवुस-अरदि-सोग-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ-आदाव-अप्पसत्थवि०थावर-मुहुम-अपज्जत्त-साधार०-अथिरादिलक. जह• हिदि. कस्स० ? अएण. जीवों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है और अनाहारक जीवों में अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कार्मण काययोगियोंके समान है।
विशेषार्थ-असंक्षी जीवोंके आहारिक द्विक और तीर्थङ्करके बिना ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। आहारक मार्गणामें सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है और अनाहारक मार्गणामें कार्मणकाययोगके समान ११२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट हो है। यहां असंशियों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा पंचेन्द्रियोंकी मुख्यता होनेसे उन्हें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहा है । तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी विशुद्ध परिणामवाला जीव कहा है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का एक पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रियादि जीवोंके भी होता है, इसलिए असं. शियों में इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहते समय पञ्चन्द्रिय यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ११३. जघन्य स्वामित्वका प्रकरण है। उसको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रादेश। ओघकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर क्षपक जो सूक्ष्मसाम्परायसंयत है और अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है , वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धकास्वामी है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा,पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है और सर्व विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और
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