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________________ ७० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० सादिरे० । एवं चक्खुर्द ० - भवसि० । ११४. आदेसेण पेरइएस सत्तएणं क० जह० अ० रात्थि अंतरं । आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० उकस्सभंगो । एवं पढमपुढवि - देवोघं भवण० - वाणवें० । एवं चैव विदिया याव सत्तमिति । णवरि सत्तणं क० जह० जह० अंतो०, उक्क० सहिदी देणा । अजहरण ० अणुक्कस्तभंगो । हूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार चतुदर्शनी और भव्य जीवके जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रघसे सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए यहाँ सात कके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरका निषेध किया है। जो जीव उपशमश्रेणिमें सात कर्मों का एक समय के लिए प्रबन्धक होकर दूसरे समयमें मरणकर पुनः उनका बन्ध करने लगता है, उसके सात कम अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल उपलब्ध होता है और जो अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रबन्धक होकर पुनः उनका बन्ध करता है, उसके सात कर्मोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है । इसीसे यहाँ श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। श्रायुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण है । एक जीवने पूर्व भवमें जघन्य श्रायुका बन्ध किया । पुनः वही जीव दूसरे भवमें उसी समय जघन्य आयुका बन्ध करता है । इसीसे श्री कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम क्षुद्रकभवग्रहण प्रमाण कहा है। त्रस पर्याय में रहनेका उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर है। किसी जीवको इतने कालतक जघन्य श्रायुका बन्ध नहीं होता । यही कारण है कि जघन्य श्रायुके स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक दो हजार सागर कहा है । जघन्य स्थितिबन्धके सिवा जघन्य स्थितिबन्ध है । इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है । इसी से यहाँ श्रयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका यह अन्तर काल कहा है । आगे जहाँ श्रधके समान अन्तर काल श्रावे, उसे इसी प्रकार घटित करना चाहिए । ११४. आदेश से नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य और श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य देव, भवनवासी और वानव्यन्तर देवांके जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ - नरक में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध असंशीचर जीवके प्रथम और द्वितीय समय में सम्भव है और इसके बाद अजघन्य स्थितिबन्ध होता है । तथा जो श्रसंशीचर नहीं है, उसके सर्वदा अजघन्य स्थितिबन्ध होता है । इसीसे सामान्यसे नरकमें सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। श्रायुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे जघन्य आबाधा कालके रहने पर होता है । इसके बाद पुनः श्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता । यही कारण है कि यहाँ आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका भी निषेध किया है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है, यह स्पष्ट ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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