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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सा० । थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि४-तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा. जह० [जह.] एग०, उक्क० बे सम० । अज. हिदि० जह० एग०, मिच्छत्त अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । पुरिस०-मणुसग०-समचदु०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु०पसत्यवि०-सुभग-सुस्सर-आदे-उच्चा० जह• हिदि० जह• एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । तित्थय. जह• हिदि० जह. एग०, उक्क अंतो० । अज• हिदि० जह• एग०, उक्क तिएिण साग० सादि० । सेसाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क. बे समय । अज हिदि० जह• एग०, उक्क० अंतो० । एवं पढमाए । णवरि तिरिक्खगदितिगं सादभंगो । पुरिस०[मणुसग० समचदु०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु-पसत्थवि०-मुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा०] तित्थय. सागरोवमं देसूणं । धुविगाणं सागरोवम । समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्टकाल तेतीस 'सागर है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है किन्तु मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सबका तेतीस सागर है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृ उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक तीन सागर है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार पहिली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, 'सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र और तीर्थकर प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर है तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सागर है। विशेषार्थ-संशी जीव मरकर नरकमें उत्पन्न होता है और ऐसे जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें या प्रथम व द्वितीय समयमें जघन्य स्थिति हो सकती है । इसीसे यहाँ सामान्यकी अपेक्षा व प्रथम नरकमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रक्रतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अपनी-अपनी बन्धकी योग्यतानुसार अलग-अलग है यथा-ध्रवधन्धवाली प्रकृतियोंका सतत बन्ध होता रहता है और नरककी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष व उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल दो समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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