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________________ जहराट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४९ १८६. विदयादि याव छहि त्ति थी गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणुबंधि ०४ जह० द्विदि० जह० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छ० तो ०, उक्क० पप्पणो द्विदी | सेसाणं जह० अ० उक्क० भंगो । सत्तमाए थी गिद्धि ०३ मिच्छ० - अणंताणुबंधि ० ४ - तिरिक्खगदितिगं जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । कम करके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल कहा गया है। जो स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंका एक समयतक बन्ध करता है और दूसरे समय में मरकर अन्यगतिमें चला जाता है, उसके इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। नरकमें मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए मिथ्यात्व प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है; यह स्पष्ट ही है । इसीसे इन प्रकृतियोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदि १० प्रकृतियाँ सप्रतिपक्ष हैं और इनका कमसे कम एक समयतक बन्ध होता है। ऐसा नियम है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि नारकी इनका नियमसे बन्ध करता है और नरकमें सम्यक्त्वका काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । जिस नारकीने तीर्थङ्कर प्रकृतिका एक समयतक जघन्य स्थितिबन्ध किया और दूसरे समय में वह जघन्य स्थितिबन्ध करने लगा, उसके इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और नरकमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका निरन्तर बन्धकाल साधिक तीन सागर है; यह स्पष्ट ही है । इसीसे यहाँ इस प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनके निरन्तर बन्धका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यह काल उक्त प्रमाण कहा है। प्रथम नरकमें सब काल इसी प्रकार बन जाता है, किन्तु कुछ विशेषता है : यथा - प्रथम नरकमें तिर्यञ्चगति त्रिकके बन्धके समय इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका भी बन्ध सम्भव है, इसलिए साता प्रकृतिके समान इनके अजघन्य स्थितिबन्ध का जघन्यकाल एक समय और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होने से यह काल साता प्रकृतिके समान कहा है। प्रथम नरककी उत्कट स्थिति एक सागर है, किन्तु यहाँ वेदक सम्यकत्वका काल कुछ कम एक सागर है; इसलिए यहाँ पुरुषवेद आदि १० और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर कहा है । किन्तु ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका मिथ्यात्व गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है, इस लिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सागर कहा है । १८६. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठवीं पृथिवी तकके नारकियों में स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, किन्तु मिथ्यात्वा - मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है । सातवीं पृथिवीमें स्त्यानद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार और तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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