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________________ जहएणट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४७ १८५. आदेसेण णेरइगा धुविगाणं जह• हिदि० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अजह० हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमयूणाणि, उक्क० हिदि० तेत्तीसं स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त इसलिए कहा है क्योंकि क समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। पुरुषवेद क्षपक प्रकृति है और क्षपक श्रेणिमें एक-एक स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय इसके प्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे है और नपुंसकवेद व स्त्रीवेदकी प्रथम व द्वितीय गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छित्ति हो जानेके बाद जीव साधिक दो छयासठ सागर काल तक आगेके गुणस्थानोंमें बना रहनेसे इतने काल तक सतत इसका नियमसे बन्ध करता रहता है। इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध एक समय तक और अजघन्य स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त तक होता है; ऐसा नियम है | इसलिए चारों आयुओंके जधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है किन्तु योग और कषाय मार्गणामें इनके जघन्य स्थितिबन्धकी तरह अजघन्य स्थितिबन्धका भी जघन्य काल एक समय बन जाता है, क्योंकि किसी भी जीवके किसी एक कषाय और योगमें एक समय तक आयुका अजघन्य स्थितिबन्ध होकर दूसरे समयमें उसके उस योग और कषायका बदल जाना सम्भव है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए तिर्यञ्चगति आदि चार प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त होनेका कारण इन प्रकृतियोंका सप्रतिपक्ष होना है। आगे भी यथासम्भव यह काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सर्वार्थसिद्धिके देव अपनी आयुके प्रथम समयसे लेकर अन्त तक मनुष्यगति श्रादि तीन प्रकृतियोका नियमसे बन्ध करते रहते हैं, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि देवगतिचतुष्कका नियमसे बन्ध कर रहा है, उसके तीन पल्यकी आयुवाले जीवों में उत्पन्न होने पर भी उनका बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका स्वभावसे जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त व अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। देवगति और नरकगतिमें इनका नियमसे बन्ध होता है; तिर्यञ्चगतिमें दूसरे गुणस्थानसे लेकर पांचवें गुणस्थान तक नियमसे बन्ध होता है और मनुष्यगतिमें दूसरे गुणस्थानसे लेकर अपनी-अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति होने तक इनका नियमसे बन्ध होता है। अब यदि इन गतियों और इन प्रकृतियोंके बन्धके योग्य अवस्थाका विचार कर इनके बन्धके उत्कृष्ट कालका योग किया जाय, तो वह एक सौ पचासी सागरसे अधिक नहीं होता; इसीसे यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सौ पचासो सागर कहा है। १८५. आदेशसे नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्यकाल दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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