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________________ ३४६ महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे द्विदि० जह० एग०, उक्क० बेछावहिसा० सादि० तिरिए पलिदो ० सू० । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । विशेषार्थ- पाँच ज्ञानावरण आदि १८ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध नृपक श्रेणिमें अन्तिम स्थितिबन्धके समय होता है, इसलिए उनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध अनादि - अनन्त, अनादिसान्त और सादि- सान्त तीन प्रकारका होता है । जो अन्य ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका भी इसी प्रकार से तीन प्रकारका बन्ध होता है। उनमेंसे यहाँ सादि - सान्त अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल कहा गया है। जब यह श्रजघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः श्रेणि पर आरोहण करनेसे छूट जाता है, तब इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है और यदि कुछ कम अर्धपुद्गल काल तक यह जीव श्रेणि पर नहीं चढ़ता है, तो इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। पाँच दर्शनावरण आदि २८ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है । यहाँ जघन्य स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि एक बार जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होनेके बाद वे पुनः कमसे कम अन्तर्मुहूर्त वाद होते हैं और उत्कृष्ट काल श्रसंख्यात लोक प्रमाण है; क्योंकि बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। सातावेदनीय श्रादि चार प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने अन्तिम स्थितिबन्धके अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय आहारकद्विकका एक समय के लिए बन्ध करता है और दूसरे समय में मरकर वह देव हो जाता है, उसके आहारकद्विकके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय उपलब्ध होता है। तथा इनके अजघन्य स्थिति बन्धका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त ही है; क्योंकि एक तो ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और दूसरे सातवें और आठवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल ही अन्तर्मुहूर्त है। इसलिए तो इन दोनों प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है और साता व यशःकीर्ति ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्योंकि साता वेदनीय और यशःकीर्तिका एक समय के लिए अजघन्य स्थितिबन्ध हुआ और दूसरे समय में इनके स्थान में असातावेदनीय व अयशःकीर्तिका स्थितिबन्ध होने लगा तो इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और यदि इनका निरन्तर स्थितिबन्ध होता रहा, तो वह अन्तर्मुहूर्त काल तक ही होगा। इसके बाद इनके स्थितिबन्धका काल समाप्त हो के कारण नियमसे इनका स्थान इनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियाँ ले लेंगी। इसलिए सातावेदनीय और यशःकीर्तिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । असातावेदनीय श्रादि ३८ प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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