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________________ जहण्णढिदिबंधकालपरूवणा ३४५ १८४. चदुगणं आयुगाणं जह० हिदि० जहएणु० एग० । अज. जहएणु अंतो । एवं सव्वत्थ योग-कसायमग्गणाओ वज्ज । तिरिक्खग०-ओरालि -तिरिकरवाणु०-णीचा. जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । मणुसग०-वज्जरि०-मणुसाणु० जह• हिदि० जह० एग०, उक्क अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० हिदि. जह• एग०, उक्क. अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० तिगिण पलिदो० सादिरे । पंचिंदि०-पर-उस्सा०-तस०४ जहरू हिदि० जह० एग०, उक्क. अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। समचदु०-पसत्थवि०सुभग-सुस्सर-आदे० जह० हिदि० जह• एग०, उक्क. अंतो। अजह• जह. एग०, उक्क० बेछावहिसा० सादि० तिषिण पलिदो० देमू । ओरालि अंगो जह• जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग सादि० । तित्थय० जह• हिदि० जह० उक्क. अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क'० तिषिण सा० सादि० । उच्चा० जह• हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज १८४. आयुकर्मकी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। योग और कषाय मार्गणाओको छोड़कर श्रायुकर्मके विषयमें इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उल्लास और प्रस चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसौ पचासी सागर है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर और आदेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्योपम है। औदारिक शरीर प्राङ्गोपाङ्ग प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धकाजघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। १. मूलप्रती अंतो० अज्ज० जह० एग० उक्क अंतो. अज्ज. इति पाठः । २. मूलप्रतौ उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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