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________________ १०५ उकस्सफोसपकवला १७७. पुढवि०-आउ-तेउ० तेसिं च बादर० सत्तएणं क० उक्क० लोग० असंखे. सबलो। अणु० सव्वलो०। आयु० खेत्तभंगो। बादरपुढवि०-आउ०-तेउ० अपज्जत्ता० सत्तएणं क• उक्क० अणु० सव्वलो । आयु० खेत्तभंगो। बादरवणप्फदिपत्तेय. बादरपुढविभंगो। वाउ० पुढवि भंगो। वरि जम्हि लोगस्स असंखे० तम्हि लोगस्स संखेज्ज । वरणप्फदि-णिगोद. पुढविकाइयभंगो। वरि सत्तएणं क. उक० सव्वलो० । १७८. ओरालियका० सत्तएणं क. उक० छच्चोद्दस । अणु० सव्वलो । आयुःखेत्तभंगो।ओरालियमि० अट्ठएणं क० उक्क लोग० असंखे । अणु० सव्वलो। वेउव्वियका० सत्तएणं क० उक्क अणु० अट्टतेरह' । आयु. उक्क० अणु० अट्ठ १७७. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और इनके बादर जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातबे भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर अग्निकायिक अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन बादर पृथिवीकायिकके समान है। वायुकायिक जीवोंमें आठों कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन पृथिवीकायिकके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है,वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग लेना चाहिए। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पाठों कर्मोकी उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन पृथ्वीकायिकोंक समान है। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सव लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ पृथिवीकायिक आदि जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन वर्तमान कालकी अपेक्षासे कहा है। शेष स्पर्शन यहाँ कही गई मार्गणाओंके स्पर्शनका ध्यान रखकर जान लेना चाहिए। १७८. औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीवों में पाठ कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिककाययोगवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १, मूलप्रतौ -तेरह ० । श्रायु० उक्क० अणु० अढतेरह०, पाउ० इति पाठः । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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