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________________ १६८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे एवं पंचमण-पंचवचि०-आभि-सुद०-अोधि-प्रोधिदं०-सम्मादिहि-चक्खुदं०-सएिण त्ति । णवरि पंचमण०-पंचवचि० आयु० अप्प० जह० एग । मुक्कले०-खइग. एवं चेव । णवरि आयु० आणदभंगो।। ३२२. मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु सत्तएणं क. भुज-अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसमयं । अवहि. सव्वद्धा। आयुग अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेजसमयं । अप्पद० जहएणु० अंतो । एवं 'सव्वसंखेजरासीणं । येसि सत्तएणं क० अवत्तव्वं णत्थि तेसिं पि तं चेव यादव्वं । मणुसअपज्ज. सत्तएणं क. भुज-अप्प जह० एग०, उक्क० श्रावलि० असं० । अवहि० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असं०। आयु. णिरयभंगो। एवं सासणः । एवं चेव वेउव्वियमि०सम्मामि० । आयु० पत्थि । ३२३. पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपुढवि०- आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव अपज्ज. तेसिं सुहुम० बादरवणप्फदिपत्तेय. तस्सेव अपज. सव्वे भंगा सव्वद्धा । समान है। श्रायुकर्मके दोनों पदोंका काल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, आभिनिबोधिक शानी, श्रुतज्ञानी, अवधिशानी, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों में आयुकर्मके अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है। शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में भी इसी प्रकार काल है । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मके दोनों पदोंका काल आनत कल्पके समान है। ___३२२.मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सात कौके भुजगार और अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थित पदका काल सर्वदा है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब संख्यात राशियोका काल जानना चाहिए । तथा जिन संख्यात राशियों में अवक्तव्य पदका बन्ध नहीं होता,उनमें भी यही काल जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सात कौके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। श्रायुकर्मके दोनों पदोका काल नारकियोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों के समान सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जोवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके श्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता। ३२३. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा इनके अपर्याप्त और सक्षम, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके अपर्याप्त जीवों में सम्भव सब पदोंका काल सर्वदा है। १. मूलप्रतौ सम्वनसंखेजरासीणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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