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________________ १६६ भुजगारबंधे अंतराणुगमो ३२४. आहार-आहारमि० सत्तएणं क. भुज-अप्पद० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो। आयु० अवत्तव्व० जह० एग०, उक० संखेज्जसम० । अप्प० जह• एग०, उक्क अंतो। ३२५. अवगद० सत्तएणं क. भुज-अप्प०-अवत्त० जह० एग०, उक्क. संखेज्जसम० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो । एवं सुहुमसं० छएणं क०। एवरि अवत्तव्वं पत्थि । कम्पइ०-अणाहा. सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवहि० सव्वद्धा । एवं कालं समत्तं । अंतराणुगमो ३२६. अंतराणुगमेण दुवि०-अोघे० आदे० । अोघे० सत्तएणं क. भुज०अप्प०-अवहि० पत्थि अंतरं । अवत्तव्यवं. जह• एग०, उक्क वासपुधत्तं । आयु. दो पदा पत्थि अंतरं । एवं कायजोगि-ओरालिका०-अचक्खु०-भवसि-आहारग त्ति । ३२७. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क. भुज-अप्प० जह• एग०, उक्क० ३२५. आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके अवक्तव्यपदुका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ३२५. अपगतवेदवाले जीवों में सात कर्मोके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें छह कौके पदोंका काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पद नहीं होता। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। अन्तरानुगम ३२६.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोधकी अपेक्षा सात कौके भूजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका अन्तरकाल नहीं है। अवतव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । आयुकर्मके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व होने से यहां सात कौके प्रवक्तव्यपदका अन्तर काल उक्नप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ३२७. श्रादेशसे नारकियोंमें सात कमौके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर १. मूलप्रतौ कम्मइ० भायु० सत्तएणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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