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________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १६७ ३२०. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क. भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० आवलि असं० । अवटि सव्वद्धा। आयु० अवत्त० जह० एग०, उक्क० श्रावलि. असं० । अप्प० जह० अंतो, उक्क० पलिदो० असं० । एवं सव्वेसिं असंखेजरासीणं अवत्तव्वरहिदाणं सांतररासी असंखेज्जलोगरासी मोत्तूण । णवरि आणदादीणं आयु० अप्पदरवंध० जहएणु० अंतो। अवत्तव्ब० जह• एग०, उक्क० संखेजसम'। ३२१. मणुस-पंचिंदिय-तस०२ पज्जत्त० सत्तएणं क० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक० श्रावलि. असं० । अवहि० सव्वद्धा । अवत्त० ओघं। आयु.णिरयभंगो । विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजगार आदि पदोंके कालका विचार किया जा रहा है। सात कौका प्रवक्तव्य पद उपशमश्रेणि पर चढ़कर उतरनेवाले और मरकर व होनेवाले जीवोंके होता है । यतः उपशम श्रेणिपर चढ़नेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, इसलिए ओघसे सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ३२०. प्रादेशसे नारकियों में सात कौके भुजगार और अल्पतर पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदका काल सर्वदा है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवं भागप्रमाण है। अल्पतर पदका जघन्य काल अन्तमुहूते और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अवकाव्य पदसे रहित सब असंख्यात राशियोंका काल जानना चाहिए। किन्तु जो सान्तर राशियां हैं और असंख्यात लोकप्रमाण संख्यावाली राशियां हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनतादिकमें आयुकर्मके अल्पतर पदका वन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। विशेषार्थ-यह हम पहले ही बतला आये हैं कि आयुकर्मका बन्ध होनेके प्रथम समय में श्रवक्तव्य पद होता है। और अनन्तर अल्पतर पद होता है, इसलिए यहां यह प्रश्न होता है कि आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण रहने पर अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान यह है कि एक या नाना जीवोंने आयुकर्मका प्रवक्तव्यबन्ध किया और दूसरे समयसे वे अल्पतरबन्ध करने लगे। पुनः अल्पतरबन्धके कालके समाप्त होनेके अन्तिम समयमें दूसरे जीवोंने अयक्तव्यबन्ध किया और उसके दूसरे समयसे वे अल्पतरबन्ध करने लगे। इसप्रकार निरन्तर रूपसे अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल लाने पर वह पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहां अल्पतरपदका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । अानतसे लेकर ऊपरके देव नियमसे मनुष्यायुका बन्ध करते हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात होते हैं, इसलिए आनतादिमें आयुकर्मके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है। . __ ३२१. मनुष्य, पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में सात कौके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवे भागप्रमाण है। अवस्थित पदका काल सर्वदा है। तथा प्रवक्तव्यपदका काल ओघके १. मूलप्रतौ संखेजसम० णिरयभंगो। मणुस- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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