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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३२६ उ० पणवरणं पलिदो० देसू० | देवगदि०४ उक्क० श्रधं । अ० जह० एग०, उक्क तिरिण पलिदो ० दे० । ओरालिय० पर ०- उस्सा० - बादर - पज्जत्त- पत्तेय उक्क० घं । अणु० जह० एग०, उक्क० पणवणं पलिदो ० सादि० । तित्थय ० उक्क ० जहण्णुक्क • अंतो० । अणु जह० एग०, उक्क० goaकोडी सू० । 0 १६२. पुरिसेषु मरणुसग०-ओरालि० ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ ० - मणुसार ० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग० उक्क० तेत्तीसं सा० । सादादी इत्थिभंगो । धुविगाणं उक० श्रघो । अ० जह० एग०, उक्क सागरोवमसदपुधत्तं । सेसं बन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है । देवगतिचतुष्क प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । औदारिक शरीर, परघात, उल्लास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है । विशेषार्थ - स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि छ्यालीस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है; क्योंकि ये ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका इतने काल तक बन्ध होता रहता है। दूसरे दण्डकमें कही गई साता वेदनीय आदि पैंतालीस प्रकृतियाँ परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं । इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तीसरे दण्डकमें कही गई पुरुषवेद आदि तेरह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके भी बन्ध होता है और स्त्रीवेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। चौथे दण्डकमें कही गई देवगतिचतुष्कका उत्तम भोगभूमिमें सम्यग्दृष्टि अवस्थाके रहते हुए कुछ कम तीन पल्य तक सतत बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य प्रमाण कहा है। पाँचवें दण्डकमें कही गई श्रदारिक शरीर आदि छह प्रकृतियोंका देवी अवस्थाके मिलने पर निरन्तर बन्ध होता रहता है और देवीकी उत्कृष्ट भवस्थिति पचपन पल्य है । इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है । यहाँ साधिक कहनेका कारण यह है कि जो पूर्व पर्यायमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इन प्रकृतियों का बन्ध करता है और तदनन्तर ऐशान कल्पमें जाकर देवी होता है, उसके यह काल साधिक पचपन पल्य पाया जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १६२. पुरुषवेदवाले जीवोंमें मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतिर्योके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । साता आदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल वेदी जीवोंके समान है । ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल धके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ सागर Jain Education International ४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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