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________________ ३३० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे मूलोघं । वरि पंचिंदि० - पर० - उस्सा ० -तस०४ उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं । १६३. एवं सगे धुविगाणं ओरालिय० तिरिक्खगदितियं मूलोघं । सादादीगं इत्थिभंगो । पुरिसवेद० मणुसभ० समचदु० - वज्जरिसभ० - मरगुसागु० - पसत्थवि ०म्रुभग०-सुस्सर-आदे० उच्चागो० उक्क० द्विदि० ओघं । अणुक्कस्स० द्विदि० जहरागेण पृथक्त्व है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उल्लास, और त्रसचतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल एक सौ त्रेसठ सागर है । विशेषार्थ - देव पर्यायमें तेतीस सागर कालतक मनुष्यगति श्रादि पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है । साता आदि पैंतालीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धके काल का स्पष्टीकरण जिस प्रकार स्त्रीवेदी जीवके कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी प्राप्त होता है, इसलिए इनका काल स्त्रीवेदी जीवोंके समान कहा है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है । इतने कालतक पुरुषवेदमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है । यहाँ शेष प्रकृतियाँ २३ रहती हैं, जिनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान जाननेके लिए कहा है सो ओघ प्ररूपणामें इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जिस प्रकार घटित करके बतला श्राये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय जाति श्रादि ७ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट कालके कथनमें कुछ विशेषता है । श्रघसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल १८५ सागर बतला श्राये हैं, किन्तु पुरुषवेद में वह १६३ सागर उपलब्ध होता है । यथा— कोई एक मनुष्य द्रव्यलिङ्गी जीव ३१ सागरकी श्रायुके साथ अन्तिम वैयकमें उत्पन्न हुआ है । वहाँ भवके अन्त में उसने उपशम सम्यक्त्वके साथ वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः वह वेदक सम्यक्त्वके साथ ६६ सागर कालतक रहकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । श्रनन्तर पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि होकर उसके साथ ६६ सागर कालतक रहा। और अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गया। इस प्रकार इस जीवके १६३ सागर कालतक पञ्चेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता रहता है, इस लिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल १६३ सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। १६३. नपुंसक वेद में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ श्रदारिक शरीर और तिर्यञ्चगतित्रिक अर्थात् तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । साता आदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल स्त्रीवेदवाले जीवोंके समान है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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