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________________ सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १६५३ से) अंगों और पूर्वी के एकदेश ज्ञाता और सोरठ देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में निवास करनेवाले प्रातःस्मरणीय आचार्य धरसेन के प्रमुख शिष्य आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने मिलकर जिस 'षट्खण्डागम' की रचना की है, उसका 'महाबन्ध' यह अन्तिम खण्ड है। इसके मुख्य अधिकार चार हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध का सम्पादन और अनुवाद कार्य पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर (शास्त्री, न्यायतीर्थ, बी. ए., एल एल बी.) ने अपने सहयोगी पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य और पं. कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ, सिवनी के साथ मिलकर किया था । इसे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुए लगभग पाँच वर्ष से ऊपर हो गये हैं । यह स्थितिबन्ध नामक दूसरा अधिकार है । प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा शेष तीनों अधिकार परिमाण में दूने-दूने हैं, इसलिए इस भाग में मूल प्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध का एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम तक का भाग ही सम्मिलित किया गया है। हस्तलिखित प्रतिका परिचय इसका सम्पादन और अनुवाद कार्य करते समय हमें महाबन्ध की केवल एक प्रति ही उपलब्ध रही है । यह प्रति मेरे जयधवला कार्यालय में कार्य करते समय श्री अखिल भारतवर्षीय दि. जैन संघ के साहित्य मन्त्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने मूडबिद्री से प्रतिलिपि करा कर बुलायी थी । भारतीय ज्ञानपीठ की प्रबन्धसमिति और उसके सुयोग्य मन्त्री पं. अयोध्याप्रसाद गोयलीय ने जब यह निश्चय किया कि महाबन्ध के आगे के भागों का सम्पादन और अनुवाद कार्य मुझसे कराया जाय, तब जयधवला कार्यालय से इस प्रति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया गया । यद्यपि ऐसे अवसरों पर दूसरे बन्धु किसी ग्रन्थ की प्रति आदि देने में अनेक अड़चनें उपस्थित करते हैं। वे प्रबन्ध के नाम पर उसके स्वामी बनने तक का प्रयत्न करते हैं। किन्तु इसे प्राप्त करने में ऐसी कोई अड़चन नहीं हुई। श्रीमान् पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री को इस बात के विदित होने पर उन्होंने तत्काल इस प्रति को प्रतिलिपि का लागत मात्र दिलवाकर ज्ञानपीठ को सौंप दिया। वही यह प्रति है जिसके आधार से महाबन्ध का आगे का सम्पादन और अनुवाद कार्य हो रहा है। यह प्रति पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के ज्येष्ठ बन्धु स्व. श्री पं. लोकनाथजी शास्त्री ने ताडपत्रीय प्रति के आधार से प्रतिलिपि करके भेजी थी । प्रति फुलस्केप साईज के कागजों पर एक ओर हाँसिया छोड़कर की गयी है । अक्षर सुन्दर और अन्तर से लिखे हुए होने से प्रेस कापी के रूप में इसी का उपयोग हुआ है। पाठान्तर पं. सुमेरचन्द्रजी दिवाकर के पास जो प्रति है वह भी मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति के आधार से की गयी है और यह प्रति भी वहीं से लिपिबद्ध होकर आयी है। ऐसी अवस्था में इन दोनों प्रतियों में लेखक के प्रमाद से छूटे हुए या दुहराकर लिखे गये कुछ स्थलों को छोड़कर पाठान्तरों की कोई भी शंका नहीं कर सकता । हमारा भी यही अनुमान था । हम समझते थे कि ये दोनों प्रतियाँ एक ही प्रति के आधार से लिपिबद्ध करायी गयी हैं, इसलिए इनमें पाठभेद नहीं होगा । पर हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पाठान्तर इनमें भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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