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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३९३ चदुआयु०-वेउव्वियछक्क-मणुसगदि० मदि० भंगो। चदुगदि-आदाव-थावर०४ उक्क. हिदि० ओघं। अणु णवुसगभंगो। ओरालि -ओरालि अंगो-वजरिसभ० उक्क अणु० अोघं । तित्थय: उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० उक्क अंतो। चक्खुदंस. तसपज्जत्तभंगो । अचक्खु० मूलोघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । __ २५०. किएणले० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक० अरदि-सोग-भयदुगु०--पंचिंदि०-तेजा-क०-वएण०४--अगुरु०४--तस०४--अथिर--असुभ--अजस०-- णिमि-पंचत० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं सा० सादि० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ० अणंताणुबंधि०४-णदुस-हुडसं०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणाव०भंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि-अओरालि-समचदु०भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। चार गति, आतप और स्थावर चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्तकोंके समान है । अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग मूलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिशानी जीवोंके समान है। __विशेषार्थ-असंयत जीवोंके आठ कषायोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ इनका निर्देश करनेकी सूचना की है । असंयत अवस्थामें स्त्यानगृद्धि तीन आदि २८ प्रकृतियोंका कुछ कम तेतीस सागर काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यह अन्तर सातवें नरककी अपेक्षासे कहा गया है। क्योंकि देवों में जो तेतीस सागरको आयुके साथ उत्पन्न होता है,वह मनुष्य पर्यायमें आकर नियमसे संयमको प्राप्त करता है, इसलिए ऐसे जीवके इनका वन्ध ही नहीं होता, अतएव इस अपेनासे असंयमका काल लेने पर इन प्रकृतियोंके बन्धका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता । शेष कथन स्पष्ट ही है। २५०. कृष्ण लेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीति, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसक वेद, हुण्डकसंस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । साता वेदनीय, पुरुष वेद,हास्य, रति, औदारिक शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वजषभनाराच १. मूलप्रतौ गदि० विभंगमदि० भंगो इति पाठः । ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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