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________________ ३९४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ओरालि०अंगो०-वज्जरिसभ०-पसत्थ०-थिरादिछ, उक्क० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। इत्थिवे-तिरिक्खगदि-चदुसंठा-पंचसंघ०-तिरिक्वाणु-उज्जो० उक्क. सोदभंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । णिरय-देवायु० उक्क० अणु णत्थि अंतरं । तिरिक्खमणुसायु० उक्क० हिदि० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं देसू० । णिरयगदि-देवगदि-चदुजादि-दोना शु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क० हिदि. पत्थि अंतरं । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० बावीसं सा० देसू ० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । वेउविय-वेउव्विय अंगो० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० बावीसं सा० । तित्थय० उक्क० अणु० णत्थि अंतर। २५१. पील-काऊ० पंचणा०-णवदंस०-सादासादा-बारसक०-पुरिस०-छएणोक०-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०--समचदु०--ओरालि०अंगो०-वजरि-- सभ०-वएण०४-मणुसाणु०--अगु०४--पसत्थ०--तस०४-थिराथिर--सुभासुभ-सुभग-- सुस्सर-आदे-जस-अजस-णिमि०-उच्चा-पंचंत० उक्क० जह. अंतो०, उक्क. संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदिक छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरअन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छह कम तेतीस सागर है। अनत्कृष्ट स्थिति बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद, तिर्यञ्चगति, चार संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी भार उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग साता प्रकृतिके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। नरकगति, देवगति. चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप, स्थावर आदि चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है ओर उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। २५१. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, छह नोकषाय, मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यशःकीर्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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