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________________ जहरणबंधसरिणयासपरूवणा छएणं क० णियमा बं० । णियमा अज० । जह० अज० संखेजगुणब्भहियं बंधदि । आयुगं ण बंधदि । आयु० जह• हिदि० बंधंतो सत्तएणं कम्माणं णियमा बंधदि । णियमा अजः । जह० अज असंखेजगुणब्भहियं बंधदि । एवं अोघभंगोमणुस०३पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका -इत्थिवे-पुरिसवेणबुस-अवगदवे-कोधादि०४-आभि०-सुद-बोधि०-मणपज्जव०-संजदा-चक्खुदं०अचक्खुदं-अोधिदं०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खइगस०-उवसम०-सरिण-आहारग त्ति । णवरि इत्थिवे. पाणाव. जह. छगणं कम्माणं णियमा जहएणा। आयुगं ण बंधदि । एवं छण्णं कम्माणं । एवं पुरिस-गवुस-कोध-माण-मायाकसायाणं । १३२. आदेसेण णिरएसु णाणावरणीयं जह• हिदी बं० छण्णं क० जीव छह कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिकी अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक बाँधता है । यह आयुकर्मको नहीं बाँधता। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य स्थिति असंख्यातगुणी अधिक बाँधता है। इस प्रकार अोधके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकशानी, श्रतवानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संशी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदमें शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला छह कौकी नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। किन्तु यह आयुकर्मको नहीं बाँधता। इसी प्रकार छह कर्मोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोधकषाय, मानकषाय और मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें शानावरणादि छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरणमें होता है, किन्तु तब शेष छह कर्मोंका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। तथा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्व गुण स्थानमें होता है। इसी बीजपदको ध्यानमें रखकर यहां ओघसे सन्निकर्ष कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं, उनमेंसे कुछ को छोड़कर शेष सब मार्गणाओंमें यथासम्भव यह ओघप्ररूणा बन जाती है। किन्तु जिन मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है, उसे जानकर उस मार्गणामें उतनी विशेषता कहनी चाहिए । उदाहरणार्थ, उपशमसम्यग्दृष्टि मार्गणामें उपशम श्रेणिकी अपेक्षा शानावरण आदिका स्थितिसन्निकर्ष कहना चाहिए और इसमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता;इस लिए इसकी अपेक्षासे सन्निकर्षका कथन नहीं करना चाहिए। स्त्रीवेद आदि मार्गणाओं में जो विशेषता है, वह अलगसे कही ही है। १३२. आदेशसे नारकियों में शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव छह ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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