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________________ ८२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे णियमा० । तं तु जहण्णा' वा०२ समउत्तरमादिं कादण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागभहियं बंधदि । आयु० अबंधगा । एवं छण्णं कम्माणं । आयु० जह• हिदि० बं० सत्तणं क.' णियमा० ज० संखेज्जगुणब्भहियं बंधदि। एवं सव्वणिरयमणुसअपज्जत्त-सव्वदेव-वेउन्वियकायजोगि-अाहारका-आहारमि०-विभंग-परिहार०संजदासंजद-तेउ०पम्म०-वेदग०-सासण त्ति । १३३. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. णिरयभंगो। आयु० जह• हिदि०० सत्तएणं क. णियमा अज' तिहाणपदिदं-असंखेज्जभागब्भहियं वा [ संखेज्जभागभहियं वा] संखेज्जगुणभहियं वा बंधदि । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०४ । णवरि जह० हिदि. वं० सत्तएणं क. णियमा० अज० विहाणपदिदं—संखेजदिभागभहियं वा संखेज कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु उनकी जघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है,तो एक समयसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक स्थितिका बन्धक होता है। यह जीव आयुकर्मका प्रबन्धक होता है। इसी प्रकार छह कौंकी अपेक्षा कथन करना चाहिए। आयुकर्मको जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कौकी नियमसे अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है । उसका बन्धक होता हुआ भी जघन्यकी अपेक्षा नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार सब नारकी, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, वैक्रियिककाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मालेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-अन्य कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध होते समय आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं होता और आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध होते समय अन्य कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं होता, यह सामान्य नियम है जो ओघ और आदेश दोनों प्रकारसे घटित होता है। इसलिए आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके साथ अन्य कर्मोके घन्य स्थितिबन्धका सन्निकर्ष घटित नहीं होता:यह स्पष्ट ही है। साथ ही श्रेणिके सिवा अन्यत्र शेष सात कौमेंसे किसी एककी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्य कर्मकी अजघन्य स्थितिका ही बन्ध करता है। यह भी नियम है। इसी सिद्धान्तको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकारसे सन्निकर्ष कहा है। १३३. तिर्यञ्चों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मको नियमसे तीन स्थानपतित अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो या तो असंख्यात वाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातवाँभाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पञ्चशेन्द्रिय तिर्यञ्च चतुष्कके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मको नियमसे दो स्थानपतित अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। वह १. जहण्णा वा ४ सम-इति पाठः । २.मूलप्रतौ क० णियमा० णियमा० अज० इति पाठः । ३. अज बिहाणपदिदं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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