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________________ ३ रणाणाजीवेहि उकस्सभंगविचयपरूवणा गुणब्भहियं वा । एवं पंचिंदिय-तसअपज्जत्ता । तिरिक्खोघभंगो ओरालियमि०मदि-सुद-असंजद-किरण--णील-काउ०-अब्भवसि-मिच्छा-असणिण त्ति । एवं चेव एइंदिय-वेइंदिया-तेइंदि०-चदुरिंदिय०-पंचका-णिगोदाणं च । वरि एइंदिय-थावरकाएसु आयु० जह० ट्ठिदिबं० सेसं असं०भागब्भहियं बंधदि । विगलिंदि० संखेज्जदिभागन्भहियं बंधदि । १३४. वेउव्वियमि०-कम्मइ०-सम्मामि-अण्णाहार. आयु० वज णिरयभंगो । अवगदवे० सत्तएणं क. सुहमसंप० छएणं कम्माणं अोघं । एवं जहएणसएिणयासो समत्तो। एवं बंधसएिणयासो समत्तो । णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा १३५. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । तत्थ इमं अट्ठपदं-ये पाणावरणीयस्स उक्कस्सियाए हिदीए बंधगा जीवा ते अणुक्कस्सियाए अबंधगा । ये अणुक्कस्सियाए हिदीए बंधगा जीवा ते उक्कस्सिया तो संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पद्धन्द्रिय अपर्याप्त और प्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जानना चाहिए । तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय और निगोद जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और स्थावरकायिक जीवों में आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव शेष कर्मोकी असंख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तथा विकलेन्द्रियोंमें संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय जीवोंका समावेश होता है। इसीसे यहाँ आयुकी जघन्य स्थितिके बन्धके समय शेष कर्मोंका जो बन्ध होता है,वह जघन्यसे अजघन्य तीन स्थानपतित होता है। ऐसा कहा है। एकेन्द्रियों और विकलप्रयके कथनका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। . १३४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक .जीवोंमें आयुकर्मके सिवा शेष सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोका तथा सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें छह कर्मोंका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। विशेषार्थ-यहाँ कही गई मार्गणाओंमें आयु कर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ आयुकर्मको छोड़कर ऐसा कहा है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ। इस प्रकार बन्धसन्निकर्ष समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविषयप्ररूपणा १३५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसमें यह अर्थप्रद है जो ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव होते हैं, वे उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिके प्रबन्धक होते हैं। जो ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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