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________________ वहिबंधे समुक्कित्तणा १८३ ३६०. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क०' अत्थि तिएिणवडि० तिएिणहाणिक अवडिदबंधगा य । एवं णिरयभंगो सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्जत्त-सव्वदेवपंचिंदिय-तसअपज्जत्त-ओरालियमि०--वेवि०-बउब्वियमि०-आहार-आहारमि०कम्मइ०-इत्थि०-पुरिस०-णवूस०-कोधादि०४--मदि०-सुद-विभंग-सामाइ०-छेदो०परिहार०-संजदासंजद०-असंजद-पंचले०-अब्भवसि--वेदगस०-सासणस--सम्मामिच्छादिहि-असएिण-अण्णाहारग त्ति । णवरि इत्थि०-पुरिस०-णqस०-कोधादि०४सामाइ०-छेदो० सत्तएणं क. अत्थि चत्तारिवडि० चत्तारिहाणि० अवहिदबंधगा य । लोभक० मोह अवत्तव्यबंधगा य । और दो हानि सम्भव नहीं है। यही कारण है कि यहाँ ओघसे सात कर्मोंकी चार वृद्धि और चार हानियोंका निर्देश किया है । अवस्थित और अवक्तव्यपद स्पष्ट ही हैं। अब रहा आयु. कर्म सो इसका जब बन्ध प्रारम्भ होता है, तब प्रथम समयमें एक मात्र अवक्तव्य पद ही होता है और अनन्तर अल्पतर पद होता है। फिर भी उस अल्पतर पदमें कौनसी हानि होती है, यही बतलानेके लिए यहाँ वह असंख्यातभागहानि ही होती है, यह स्पष्ट निर्देश किया है । इस प्रकार आठों कौमें कौन-कौन पद होते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। यह तो स्पष्ट ही है कि नरकगति मार्गणासे लेकर अनाहारक मार्गणा तक सब मार्गणाओंमेंसे जिसमें आयुकर्मका बन्ध होता है,उसमें अवक्तव्य और असंख्यातभागहानि ये दो पद ही होते हैं।इसलिए इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है,पर सात कर्मोंकी अपेक्षा भी अन्य जिन मार्गणा ओंमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, उनकी प्ररूपणा भी ओघले समान कही है। ऐसी मार्गणाओंका नाम निर्देश मूलमें किया ही है। ३६०. आदेशको अपेक्षा नारकियों में सात कौके तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। इसी प्रकार नारकियोंके समान सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैकियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभङ्गलानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत,पाँच लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंक्षी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में सात कर्मोके चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव है । तथा लोभकषायमें मोहनीय कर्मके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ-यहां असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां हैं। तथा असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि ये तीन हानियां हैं। इनमें असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके मिलानेपर चार वृद्धियां और चार हानियां होती हैं। 1. मूलप्रतौ क० अवढि तिरिण इति पाठः। २. मलप्रतौ-भंगो सव्वमणुसतिरिक्खअपजत्त इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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