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________________ जहण्णट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा ४२१ अ० अ० भंगो। चदुजादि आदाव थावरादि ०४ जह० श्रघं । अज० अणु० भंगो । ओरालि ०-ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० [ जह० ] श्रघं । अज० जह० एग०, उक्क० yoकोडी मू० । अहक० जह० ज० श्रघं । आहार ०२ जह० हिदि० पत्थि अंतर । अज० ओघं । तित्थय० उक्कस्तभंगो । 1 २८०, अवगदवे ० सगपगदीणं जह० द्विदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । २८१. कोधादि ०४ खवगपगदीगं चदुआयु० - आहार ०२ जह० अज० णत्थि समान है। चार जाति, तप और स्थावर श्रादि चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है । औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और वज्रेषभनाराचसंहननके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल के समान है । अजघन्य स्थितिबन्धका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। आठ कषायके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रधके समान है । आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोधके समान है। सीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ – नपुंसक वेद में प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालके न होनेका स्पष्टीकरण जिस प्रकार पुरुषवेद में कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । नपुंसकवेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यक्त्वके सद्भावमें स्त्रीवेद आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतिर्योका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रसंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ निद्रा आदि तीसरे दण्डकमें कही गईं प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है, इसलिए यहाँ तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्चके उसी पर्याय में उत्पन्न हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, और इसके औदारिक शरीर आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २८०. अपगतवेद में अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - अपगतवेद में अपनी सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है तथा उपशम श्रेणिमें अपगतवेदीके अपनी प्रकृतियोंका अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। २८१. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में क्षपक प्रकृतियों, चार आयु और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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