SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५७ जहएणट्ठिदिबंधकालपरूवणा १६८. ओरालिए धुविगाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदितिरिक्खाणु०-णीचागो० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० तिणि वाससहस्साणि देसू० । सेसाणं कायजोगिभंगो । १६६. ओरालियमिस्से पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दुगु०ओरालिय-तेजा०-क०-वरण:-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत०-देवगदि०४-तित्थय. जह. अज० जह० उक्क० अंतो० । से काले सरीरपज्जत्तीहि जाहिदि त्ति यदि अधाप शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इनका काययोगकी अपेक्षा निरन्तर अजघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियों में होता रहता है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है। इसके बाद ये बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त होकर इनका जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं। यही कारण है कि यहाँ शेष ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा तिर्यश्चगतित्रिकका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए इन तीन प्रकृतियोंके भी अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १६८. औदारिक काययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धक जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जपन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूतें है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग काययोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस,हजार वर्ष है। इनके अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक औदारिक काययोग होता है । इसीसे औदारिक काययोगमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है तथा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति तीन हजार वर्ष है। इनके अन्तर्मुहूर्त कम तीन हजार वर्ष तक औदारिक काययोग होता है। इसीसे औदारिक काययोगमें तिर्यश्चगति निकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध औदारिक काययोगके रहते हुए यहीं पर सम्भव है। शेष कथन स्पट ही है। १९९. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कामण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, पाँच अन्तराय, देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा, इसलिए यदि अधःप्रवृत्तका यह काल लेते हैं तो जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy