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________________ ३५६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहिया पाणावर भंगो । सेाणं उक्करसभंगो | तसअपज्ज० उक्कस्सभंगो । १६६. पंचमण० - पंचत्रचि ० सव्वपगदीगं जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । चदुत्रयु० जह० द्विदि० जह० एग० । अज० जह० एग०, उक्क ० तो ० । १६७. कायजोगि० खवगपगदीणं जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अ० हिदि० जह० एग०, उक्क० अांतकालमसंखे० । वरि सादा० - पुरिस०जस०-उच्चा॰ अंतो० | सेसाणं धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स य जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० प्रसंखेज्जा लोगा । सेसारणं मजोगिभंगो । वरणके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । त्रस अपर्याप्तकों में अपनी सब' प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । १९६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चार आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ-पाँचो मनोयोग और पाँचों वचनयोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ सब प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। चारों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका साधारणतः जघन्य और उत्कृष्ट काल यद्यपि अन्तमुहूर्त है, पर उक्त योगोंका जघन्य काल एक समय होनेसे यहाँ आयुओं के श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय बन जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १९७. काययोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - एक तो क्षपक प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है और दूसरे काययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनन्त काल है । इसी बातको ध्यान में रखकर यहाँ क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक 'समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है । मात्र साता वेदनीय आदि चार क्षपक प्रकृतियोंका काययोगमें निरन्तर बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक ही होता है, क्योंकि जिन गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध होता है, उनमें काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही उपलब्ध होता है। इसलिए इन चार प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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