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________________ जहण्णढिदिवंधकालपरूवणा ३५५ १६३. बेइं०-तेइं०-चदुरिं० तस्सेव पज्जत्तापज. उक्कस्सभंगो। पंचिंदिय०२ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं उक्कस्सभंगो । णवरि धुविगाणं अज० जह० अंतो०, उक्क० कायहिदी० । पंचिंदियअपजत्ता उक्कस्सभंगो । १६४. पंचकायाणं सव्वपगदीणं उक्कस्सभंगो। गवरि यम्हि अंतो० तम्हि जह० एग० कादव्वं । १६५. तस०२ खवगपगदीणं जह० ओघं । अज० अणु० भंगो । णवरि जह० अंतो० । सेसाणं धुविगाणं जह० ट्ठिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० विशेषार्थ-तिर्यश्च सामान्यके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त तथा अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण बतला आये हैं । यह काल यहाँ एकेन्द्रियों में इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए यह कथन सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है । बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। यह तो स्पष्ट ही है,पर इनमें तिर्यञ्चगतित्रिकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इन तीन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और बादर अग्निकायिक व बादर वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है। इससे यहाँ यह काल इतना ही उपलब्ध होता है। इसी प्रकार शेष कालका भी विचार कर उसका कथन कर लेना चाहिए। १९३. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल कायस्थिति प्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-विकलत्रय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो काल कहा है, वही यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १९४. पाँच स्थावर कायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँपर जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, वहाँपर जघन्य काल एक समय कहना चाहिए। विशेषार्थ--पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुस्क्रप स्थितिबन्धका जो काल कहा है. उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। मात्र जघन्य काल अन्तमुहर्त के स्थान में एक समय कहना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १६५. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अजघन्य स्थितिवन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका काल ज्ञाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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