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कर्ममीमांसा
३५.
विषमता का कारण कर्म को मानता है। उसका कहना है कि ईश्वर जगत् का कर्ता है तो सही, पर उसने विश्व की रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। जीव जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं। यदि अच्छा कर्म करता है, तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं। कविवर तुलसीदास जी इसी तत्त्व को स्वीकार करते हुए 'रामचरितमानस' में कहते हैं
'करम प्रधान विश्व करि राखा
जो जस करहि सो तस फल चाखा।।'
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ईश्वर ने विश्व की रचना कर्म प्रधान की है उसे फल मिलता है।
जो अच्छा या बुरा, जैसा काम करता है, उसी के अनुरूप
नैयायिक दर्शन कार्यमात्र के प्रति कर्म को साधारण कारण मानता है। इसके अनुसार जीवात्मा व्यापक है, इसलिए जहाँ भी उसके उपभोग के योग्य कार्य की सृष्टि होती है, वहाँ उसके कर्म का संयोग होकर ही वैसा होता है। अमेरिका में बननेवाली जिन कारों (मोटरों) तथा अन्य पदार्थों का भारतीयों द्वारा उपभोग होता है, वे उनके उपभोक्ताओं के कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं और इसीसे वे कालान्तर में अपने-अपने उपभोक्ताओं के पास पहुँच जाते हैं। उपभोग योग्य वस्तुओं के विभागीकरण का कर्म तुलादण्ड है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है, वह उसके कर्मानुसार है और जो निर्धन है वह भी अपने कर्मानुसार है। कर्म बटवारे में कभी भी पक्षपात नहीं होने देता। गरीब और अमीर का भेद तथा स्वामी और सेवक का भेद मानवकृत नहीं है। अपने-अपने कर्मानुसार ही इन भेदों की सृष्टि होती है। इसी प्रकार जातिकृत भेद भी कर्मकृत ही है।
संक्षेप में नैयायिक दर्शन का मन्तव्य यह है कि प्राणी जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है, उसके अनुसार ईश्वर उसके फल की व्यवस्था करता है। यदि कोई मनुष्य किसी के धन का अपहरण करता है, तो अगले भव में उसके धन का अवश्य ही अपहरण होता है और वर्तमान भव में वह किसी की सहायता करता है, तो अगले भव में उसे अवश्य ही सहायता मिलती है।
किन्तु जैनदर्शन में बतलाये गये कर्मवाद से इस मत का समर्थन नहीं होता । यहाँ कर्मवाद की प्राण-प्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारों पर की गयी है। ईश्वर को तो जैनदर्शन स्वीकार करता ही नहीं। वह निमित्त को स्वीकार करके भी कार्य के आध्यात्मिक विश्लेषण पर अधिक जोर देता है। नैयायिक और वैशेषिक दर्शन ने कार्य कारणभाव की जो व्यवस्था की है, वह उसे मान्य नहीं है। उसका मत है कि पर्यायक्रम से बदलते रहना यह प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। इसके मत से जिस काल में वस्तु की जैसी योग्यता होती है, उसी के अनुसार कार्य होता है जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्य के अनुकूल होता है, वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादान से होता है; किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तु की अनुकूलता ही निमित्तता की प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है; कर्ता नहीं । जैनदर्शन ने जगत् को अकृत्रिम और अनादि क्यों माना है, इसका रहस्य यही है। वह यावत् कार्यों में बुद्धिमान् निमित्त को आवश्यकता स्वीकार नहीं करता घटादि कार्यों की उत्पत्ति में यदि बुद्धिमान् निमित्त देखा भी जाता है, तो इससे सब कार्यों में बुद्धिमान् को निमित्त मानना उचित नहीं है; ऐसा इसका मत है।
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जैनदर्शन कर्म को स्वीकार करके भी यावत् कार्यों के प्रति उसे निमित्त कारण नहीं मानता। वह जीव की विविध अवस्थाएँ, शरीर, इन्द्रिय, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास इन कार्यों के प्रति ही कर्म को निमित्त कारण मानता है। इस दर्शन में कर्मवाद की जो व्यवस्था की गयी है, उसके अनुसार अन्य कार्य अपने-अपने कारणों से होते हैं; कर्म उनका कारण नहीं है। उदाहरणार्थ- पुत्र का प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगार में नफा-नुकसान का होना, दूसरे के द्वारा अपमान या सम्मान का किया जाना, अकस्मात् मकान का गिर पड़ना, फसल का नष्ट हो जाना, दुर्घटना द्वारा एक या अनेक व्यक्तियों की मृत्यु का होना, ऋतु का अनुकूल या प्रतिकूल होना, अकाल या सुकाल का पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघात का हो जाना, मनुष्य आदि पर बिजली आदि गिरकर उसका मर जाना, शरीर में रोगादिक का होना तथा विविध प्रकार के इष्टानिष्ट
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