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________________ महाबन्ध संयोगों व वियोगों का होना आदि जितने कार्य हैं, उनका कर्म कारण नहीं है। भ्रम से इन्हें कर्मों का कार्य माना जाता है। पुत्र की प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रमवश उसे अपने शुभ कर्म का कार्य समझता है और उसके मर जाने पर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्म का कार्य समझता है। पर क्या पिता के पाप कर्म के उदय से पुत्र की मृत्यु या पिता के पुण्योदय से पुत्र की उत्पत्ति सम्भव है। कभी नहीं। सच बात तो यह है कि ये इष्ट संयोग और इष्ट वियोग आदि जितने कार्य हैं, वे पुण्य और पाप कर्म के कार्य नहीं हैं। निमित्त अन्य बात है और कार्य अन्य बात है। कर्मोदय के निमित्त को कर्म का कार्य कहना उचित नहीं है। यहाँ प्रसंग से हम उस मत की आलोचना करेंगे, जिसके अनुसार बाह्य इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग में कर्म की उपादेयता स्वीकार की जाती है। प्रश्न यह है कि एक सम्पन्न घर में उत्पन्न होता है और दूसरा दरिद्र घर में। एक अल्पायु होता है और दूसरा दीर्घायु । एक को जीवन में नाना प्रकार के पूजा-सत्कार की प्राप्ति होती है और दूसरा दर-दर का भिखारी बना फिरता है। एक स्वर्ग जाकर देवसुख का उपभोग करता है और दूसरा नरक का कीड़ा होकर अनन्त यातनाएँ सहन करता है। यदि इष्टसंयोग और इष्टवियोग आदि पुण्य और पाप कर्म का फल नहीं है, तो यह सब क्यों होता है? यह तो हम देखते हैं कि लोक में एक ऐश्वर्यशाली होता है और दूसरा दरिद्र । तथा हम आगम से यह भी जानते हैं कि देवलोक में भोगोपभोग की विपुल सामग्री उपलब्ध होती है और नरक में न केवल उसका सर्वथा अभाव ही दिखाई देता है, प्रत्युत वहाँ बहुतायत से दुःख के साधन ही देखे जाते हैं, पर ऐसा क्यों होता है-इसका विचार हमें तात्त्विक दृष्टि से करना चाहिए। आगम में व्यवस्था दो प्रकार की बतलायी है-एक शाश्वतिक व्यवस्था और दूसरी प्रयत्नसाध्य व्यवस्था। देवलोक, नरक और भोगभूमि में शाश्वतिक व्यवस्था होती है। वहाँ अनादि काल पहले जो व्यवस्था थी. वही आज भी है। जहाँ जितने विमान, नरक या कल्पवृक्ष आदि हैं, वे सदा उतने ही बने रहेंगे। उनका जो शृंगार है, वह भी उसी प्रकार बना रहेगा। उसमें तिलमात्र भी अन्तर नहीं हो सकता। इसलिए अपने पूर्वबद्ध आयुकर्म के अनुसार जो जहाँ उत्पन्न होता है, उसे वहाँ की सुख-दुःख में निमित्त पड़नेवाली सामग्री अनायास मिलती है और जीवन के अन्तिम क्षणतक उसका संयोग बना रहता है। पुण्यातिशय न तो इसमें वृद्धि ही कर सकता है और न हीनपुण्य उसमें न्यूनता ही ला सकता है। हम यह तो कह नहीं सकते कि इन स्थानों में कर्मों का विपाक एक समान होता है; क्योंकि एक तो आगम में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता और मनुष्य की युक्ति व विवेक भी इसे स्वीकार नहीं करता। आगम में तो यहाँ तक निर्देश किया है कि जिस प्रकार देवों के साता का उदय होता है, उसी प्रकार असाता का भी उदय होता है। नारकियों के सम्बन्ध में भी यही बात कही गयी है। आगम का यह कथन तभी युक्तियुक्त ठहरता है, जब हम यह मान लेते हैं कि इन स्थानों में भी कर्म के विपाक में न्यूनाधिकता व यथासम्भव फेर-बदल देखा जाता है। थोड़ी देर को हम इस सामग्री को पुण्य और पाप का फल मान भी लें, तब भी हमारे सामने यह तो प्रश्न रहता ही है कि यदि देवलोक की सामग्री पुण्य से मिलती है, तो ऊपर-ऊपर के देवों के पुण्यातिशय की विशेषता होने से उत्तरोत्तर विपुल सामग्री की उपलब्धि होनी चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता। 'तत्त्वार्थसूत्र' में लिखा है कि ऊपर-ऊपर के देव गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान से हीन-हीन होते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के इस कथन की सार्थकता तभी बन सकती है, जब हम बाह्य सामग्री की प्राप्ति पुण्य का फल नहीं मानते हैं। इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि तो फिर इसकी प्राप्ति का कारण क्या है? प्रश्न स्पष्ट है और उसका उत्तर भी स्पष्ट है कि बाह्य सामग्री की प्राप्ति का मूल कारण पुण्य न होकर प्राणी की कषाय है। एक कषाय ही ऐसा पदार्थ है जिसके निमित्त से यह प्राणी बाह्य परिग्रह को स्वीकार करता है, उसका अर्जन करता है, संचय करता है और संचित द्रव्य का संरक्षण करता है। आगम में बतलाया है कि अमुक लेश्यावाला जीव मरकर अमुक स्वर्ग या नरक में मरकर उत्पन्न होता है और यह भी बतलाया है कि जो जीव जिस प्रकार के स्थान को प्राप्त करता है, उसके मरण के पूर्व नियम से उस प्रकार की लेश्या हो जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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