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________________ महाबंध द्विदिवंधाहियारे furuaatur ५. शिगवाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि - अरणंतरोवणिधा परंपरोवधाय । अतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिट्ठीगं पज्ज - ताणं णाणावरणीय दंसरणावरणीय-वेयणीय- अंतराइगाणं तिरिण वस्स - सहस्साणि बाधा' मोत्तू जं पदमसमए पदेसग्गं खिसित्तं तं बहुगं । जं विदिय-समए पढेसरगं fuसितं तं विसेसहीणं । जं तद्रियसमए पढेसरगं णिसितं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उकस्से तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति । पंचिद्रियाणं सरणीणं मिच्छादिट्टीणं पज्जत्ताणं मोहणीयस्स सत्तवस्स - सहस्साणि आवाधा मोरण जं पदमसमए पढेसरगं णिसित्तं तं बहुगं विदियसमए पदेसरगं सितं तं विसेसहीणं । तद्रियसमए पदेसग्गं णिमित्तं तं विसेसहीणं । एवं विसेसही विसेसहीणं जाव उकस्सेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ त्ति । पंचिदियस्स सरिणमिच्छादिस्सि वा सम्मादिहिस्स वा आयुगस्स पुव्वकोडितिभागं वाधा मोत्तू जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं । जं विदियसमए पदेसणं णिसित्तं तं विसेसहीणं । जं तदियसमए पदेसग्गं णिमित्तं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उकस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिहीणं पज्ज० णामागोदाणं वे वस्ससहस्साणि निषेकप्ररूपणा ५. निषेकप्ररूपणाका विचार करते हैं। उसके ये दो अनुयोगद्वार हैं- अनंतरोपनिधा और परम्परोनिधा । श्रनंतरोपनिधाकी अपेक्षा पंचेंद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अंतराय कर्मोंके श्राबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेष हीन हैं। जो तीसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञो मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंके मोहनीयके सात हजार वर्ष प्रमाण श्रबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । इस प्रकार सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके श्रायु कर्मके एक पूर्वकोटिकी त्रिभागप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट आयुके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवके नाम और गोत्र कर्मके दो हजार १. पंचसं० द्वार ५ गा० ५० । गो० क०, गा० १६१, १६२ । २. गो० क०, गा० १६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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