SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णिसेगपरूवणा आबाधा मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं । जं विदिय- तं विसे । जं तदिय- तं विसे । एवं विसेसहीणं विसेस. जाव उक्कस्सेण वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ ति। वर्षप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार बीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। विशेषार्थ-अनन्तरका अर्थ व्यवधान रहित और उपनिधाका' अर्थ मार्गणा है। जिस प्रकरणमें अव्यवधान रूपसे वस्तुका विचार किया जाता है वह अनन्तरोपनिधा अनु योगद्वार है। यहां यह बतलाया गया है कि प्रति समय जो कर्म बंधते हैं वे अपनी स्थिति के अनुसार किस क्रमसे निक्षिप्त होते हैं। मूलमें इतना ही निर्देश किया गया है कि प्रथम समयमें बहुत कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। दूसरे समय में एक चय कम कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इस प्रकार अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक सब समयों में एक-एक चय कम कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इसका विशेष खुलासा इस प्रकार है-मान लो किसी जोवने ६३०० कर्म परमाणुओंका वंध किया और उनको उत्कृष्ट स्थिति ५१ समय पड़ी। यहाँ तीन समय अाबाधाके हैं, इसलिये उन्हें छोड़कर बाकीके ४८ समयोंमें उक्त ६३०० कर्म परमाणुओंको निक्षिप्त करना है जो उत्तरोत्तर विशेपहीन क्रमसे दिये जाते हैं। प्रथम गुणहानिमें चयका जो प्रमाण होता है, दूसरीमें उससे आधा होता है । इस तरह अंतिम गुणहानिके अन्तिम निपेकतक उत्तरोत्तर चय प्राधा-आधा होता जाता है। ४८ समयोंमें निक्षिप्त परमाणुओंकी निषेक-रचना इस प्रकार होती है ५१२ २५६ १२८ ४८० .२४० ११२५६ १०४ ५२ ४१६ २०८ २६ १३ ३८४ ३५२ ३२८ इस रचनामें प्रथम निपेकसे दूसरा निषेक विशेषहीन दिखाई देता है और यह क्रम प्रन्तिम निपक तक चला गया है। अन्य कर्मोसे आयु कर्ममें यही अन्तर है कि अन्य कर्मों की ग्राधाधा स्थिति बन्धके भीतर परिगणित की जाती है, पर श्रायु कर्ममें उसे स्थितिबन्ध । अना गिना जाता है --- यथा इस उदाहरगमें 17 समयका स्थितिवन्ध मानकर ३ समय श्रावाधारे लिये छोड़ दिये गये हैं। इस प्रकार प्रायु कर्मके स्थिनिधो जितने समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy