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________________ अण्णांतरपरूवणा ७३ ११७. बेइंदि० -तेईदि ० चदुरिंदि० अहरणं कम्मारणं उकससभंगो । आयु० जह० जह० ओघं । उक्कस्सं सगट्टिदी | अज० अणुक्कस्तभंगो । एवं पज्जत्ता० । गवरि आयु० जह० णत्थि अंतरं । ११८. पंचिंदिय -तस० २ सत्तरगं कम्माणं मूलोघं । श्रयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयूर्ण, उक्क० सगहिदी । पज्जत्ते णत्थि अंतरं । अ० श्रधं । 1 विशेषार्थ — सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी बातको ध्यान में रखकर एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा सामान्य तिर्यञ्चों की प्ररूपणाके समय कर ही आये हैं। एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार वर्ष प्रमाण है । इसीसे इनके श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्षप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति ङ्गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीसे इनमें आठों कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । यही कारण है कि इनके सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण कहा है। इनके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध होने पर मर कर ये बादर पर्याप्त नहीं होते । इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है; किन्तु यहाँ और सर्वत्र इतना विशेष समझना चाहिए कि जहाँ जिसकी कार्यस्थिति आदिप्रमाण अन्तरकाल कहा है वहाँ उस स्थितिके प्रारम्भ और अन्त में विवक्षित स्थितिका बन्ध कराकर इस प्रकार अन्तरकाल ले आवे । ११७. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में आठों कर्मोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्ट के समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल श्रोधके समान है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार इनके पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ --- द्वीन्द्रिय आदि पर्याप्तकोंके जघन्य श्रायु क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण बँधती है, जिससे वे भवान्तर में पर्याप्त नहीं रहते। इससे इनमें जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता । यही कारण है कि इनमें श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । शेष कथन स्पष्ट है । ११८. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अस और जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रधके स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम क्षुल्लक अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में श्रयुकर्मके जघन्यं स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा सबके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओधके समान है । सपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंके समान है । आयुकर्मके जघन्य भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है, त्रस कायिकोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है और त्रसकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट कार्यस्थिति दो हजार सागर है । इसे ध्यानमें रखकर इन चारोंमें श्रायुकर्मके जघन्य १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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