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________________ ३२६ महाबंधे ट्ठिदिखंघाहियारे जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं देवगदि०४ । अथवा से काले पजत्ती गाहिदि त्ति कीरदि तदो उक्क० जहएणु० एग० । अणु० जह• उक्क० अंतो० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं उक्क० अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अथवा उक्क० जहएणु० एग० । अणु० जह० एग०, उक. अंतो । १५८. वेउब्धियका मणजोगिभंगो । वेउव्वियमिस्स० धुविगाणं तित्थयरस्स च अथवा पवत्त० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । से काले सरीरपज्जत्ती जाहिदि त्ति कीरदि तदो उक० जह० एग०, अणु० जह• अंतो० । सेसाणं ओरालियमिस्सभंगो। स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जानना चाहिए। अथवा तदनन्तर समयमें पर्याप्तिको पूर्ण करेगा ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष परिवर्तनशील प्रकृतियोंके उत्त और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अथवा इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोगमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है इस प्रश्नका उत्तर दो प्रकारसे दिया गया है। मुलप्रकृति स्थितिबन्ध प्ररूपणामें स्वामित्वका विचार करते समय यह बतला आये हैं कि जिसके अगले समयमें शरीर पर्याप्ति पूर्ण होगी,ऐसा जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है और इस उत्तरप्रकृति स्थितिवन्ध प्ररू. पणामें स्वामित्वका विचार करते समय जो कुछ बतलाया है, उसका भाव यह है कि जो उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला या तद्योग्य संक्लेश परिणामवाला औदारिकमिश्रकाययोगी जीव है.वह अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण भत परिणामोंके होनेपर उस प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है। इन्हीं दो विचारोंके आधारपर यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो प्रकारसे कहा गया है। प्रथम विचारके अनुसार प्रथम दण्डक और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल केवल एक समय उपलब्ध होता है और दूसरे विचारके अनुसार वह कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५८. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अथवाप्रवर्तमान प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अथवा तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा,ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीवोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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