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________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १४९ २७६. णिरएसु सत्तएणं क. भुज-अप्पद०बं० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अवहिद० ओघं । आयु० अोघो चेव । एवं सव्वणिरय-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचकाय०-पंचमण-पंचवचि०--ओरालियमि०-वेउव्वियका०वेउनियमि०-आहार-आहारमि०-विभंग-मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-सासण त्ति । णवरि आयु० जोगेसु अप्पद० जह० एग० । आभि०-सुद०-अोधि०--प्रोधिदं०-तेउ०-पम्मले०-मुक्कले०-सम्मादि०-खइग०-वेदगउवसमस०-सणिण त्ति एवं चेव । णवरि भुज० जह० एग०, उक्क० तिषिण सम । एदेसि सव्वेसि सत्तएणं क० एसिं अवत्तव्वबं. यम्हि अत्थि तेसिं ओघं कादव्वं । होता रहता है । उपशान्तमोहसे सूक्ष्मसाम्परायमें आनेपर मोहनीय और आयुके बिना छह कर्मीका तथा सूक्ष्मसाम्परायसे अनिवृत्तिकरणमें आनेपर मोहनीयका अथवा उपशान्त मोहमें मरकर देव होनेपर प्रथम समयमें आयुके बिना सात कौका अवक्तव्यबन्ध होता है। इसीसे अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उनमें चारों पदोंका श्रोधके समान काल उपलब्ध हो जाता है। इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र सामान्य तिर्यञ्चोंके उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे इनमें अवक्तव्य पदका निषेध किया है। आयुकर्मका मात्र त्रिभागमें या मरणके अन्तर्मुहूर्त काल पूर्व अन्तर्मुहूर्त कालतक बन्ध होता है। और वह बन्ध नियमसे प्रथम समयमें अवक्तव्य और इसके बाद अल्पतर ही होता है। यही कारण है कि इसमें विक्रव्य और अल्पतर ये दो पद कहकर इनका क्रमसे एक समय और अन्तर्महत काल कहा है। २७६. नारकियों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थितबन्धका काल श्रोधके समान है। आयुकर्मका भङ्ग ओघके ही समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब मनुष्य, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पाँचों स्थावरकाय, पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गशानी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योगोंमें आयुकर्मके अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय है। आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संधी जीवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। तथा इन सब सामान्य नारकी आदि पूर्वोक्त मार्गणाओं से जिन मार्गणात्रोंमें प्रवक्तव्यबन्ध है,वहां उसका काल ओघके समान कहना चाहिए । विशेषार्थ-एक पर्यायमें भुजगार और अल्पतरबन्ध लगातार अधिकसे अधिक दो समयतक होता है, इसलिए सामान्य नारकियों में या जो मार्गणाएँ एक पर्यायतक सीमित हैं या एक पर्यायके भीतर बदलती रहती हैं, उनमें भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथा प्राभिनिबोधिक ज्ञानी आदि मार्गणाएँ एक पर्यायतक ही सीमित नहीं हैं । पर्यायके बदलनेपर भी वे बनी रहती हैं, इसलिए इनमें भुजगार बन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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