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________________ २५५ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा सामित्तपरूवणा ६८. सामित्तं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०---ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदसणा०-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-एस-अरदिसोग-भय-दुगु-पंचिंदियजादि-तेजा-क०-हुंडसं०-वएण०४-अगुरु०४-अप्पसत्थवि० सस०४-अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्कस्सओ हिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सएिणस्स मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागार-सुदोवजोगजुत्तस्स उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सए हिदिसंकिलिस्से वट्टमाणस्स अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स' । सादावेइत्थि-पुरिस -हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा-पंचसंघ०-मणुसाणु०-पसत्थविहाय०थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क० हिदि० कस्स ? तस्सेव पंचिंदियस्स सागार-जागार० ध्रुव नहीं हो सकते। पहले मूलप्रकृति स्थितिबन्ध प्रकरणमें शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन सात मूल प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धको सादि आदि चार प्रकार का बतलाया है और यहाँ केवल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके भेदोंमें ही यह घटित किया गया है. सो इसका कारण यह है कि आयुके विना शेष सात मूल प्रकृतियोंका अनादिसे निरन्तर बन्ध होता आया है,पर इन सबकी उत्तर प्रकृतियोंकी यह स्थिति नहीं है; इसलिए उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जिन कर्मों की उत्तर प्रकृतियोंमें यह व्यवस्था सम्भव हुई, उनमें ही उक्त प्रकारसे निर्देश किया है। यह श्रोधप्ररूपणा अचक्षुदर्शन और भव्य इन दो मार्गणाओंमें ही अविकल घटित होती है, क्योंकि ये मार्गणाएँ कादाचित्क नहीं है और क्रमसे क्षीणमोह व अयोगिकेवली गुणस्थानतक रहती हैं। इसलिए इनमें ओघके समान प्ररूपणा वन जाती है। केवल भव्यमार्गणामें ध्रुध विकल्प नहीं होता ; शेष कथन सुगम है । स्वामित्वप्ररूपणा ६८. स्वामित्वदो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दोप्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, गुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थिति स्वामी कौन है ? जो पञ्चेन्द्रिय है, संशी है, मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकारजागृतश्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाममें अवस्थित है अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाला है,ऐसा चार गतिका अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो पञ्चेन्द्रिय है, साकार जागृत तत्प्रायोग्यसंक्लेशपरिणामवाला है और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ तत्प्रायोग्य संक्लेशरूप परि १. सेसाणं । उक्कस्ससंकिलिट्ठा चद्गदिया ईसिमझिमयां-गो. क०,गा० १३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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