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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे नादरएइंदिय-सुहुमएइंदिय० पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं उक्कसिया आवाधा मोत्तूण जौं पढमसमयपदेसग्गादो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुण जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति । १५. एयपदेसियदुगुणहाणिहाणंतराणि असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणापदेसदुगुणहाणिहाणंतराणि पलिदोवमस्स वग्गमूल. असंखेज्जदिभागो। १६. णाणापदेसदुगुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि । एयपदेसदुगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं । आबाधाकंडयपरूवणा १७. आवाधाकंडयपरूवणदाए' पंचिंदियसएिण-असएिण-चतुरिंदिय-तेइंदियबेइंदिय-बादरएइंदिय-मुहुमेइंदिय-पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं उक्कस्सादो द्विदीदो समये समये पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं ओसरिदूण एयमान्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंके उत्कृष्ट आवाधाको छोड़कर प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्मपरमाणुओंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे द्विगुणहीन होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे द्विगुणहीन द्विगुणहीन होते जाते हैं। १५. एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं। नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके प्रथम वर्गमलके असंख्यातवे भागप्रमा १६. नाना प्रदेश द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। इनसे एक प्रदेश द्विगुणहानि स्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-पहले प्रथम निषेकमें कितना द्रव्य होता है और द्वितीयादिक निषेकोंमें वह कितना-कितना कम होता जाता है, इसका विचार कर आये हैं । यहाँ प्रथम निषेकके द्रव्यसे कितने स्थान जानेपर वह उत्तरोत्तर आधा-आधा रहता जाता है, इसका विचार किया गया है। मूलमें बतलाया है कि प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्म परमाणुओंसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वे आधे रह जाते हैं। इस प्रकार पुनः-पुनः पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वे उत्तरोत्तर आधे-आधे शेष रहते हैं। यहां नानाप्रदेश गुणहानि स्थानान्तर पदसे नाना गुणहानियां ली गई है और एकप्रदेशगुणहानिस्था नान्तरपदसे एक गुणहानिके निषेक लिए गये हैं। आवाधाकाण्डकमरूपणा १७. अब आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करते हैं । इसकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संशो पर्याप्त, पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय असंही पर्याप्त, पंचेन्द्रिय असंशी अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसे समय समय उतरते हुए पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति उतर कर एक आवाधाकाण्ड करता १. पञ्चसं०, पञ्चम द्वार,गा० ५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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