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________________ furपरूवणा ११ विसे० ० । जं तदियस ० तं विसे० । एवं विसे० विसे० जाव उक्क० सागरोवमस्स तिरिणसत्त भागा, सत-सत्त भागा, बे-सत्त भागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊरिणगात्ति । श्रायुगस्स तोमु० आबाधा मोत्तूण जं पढमसमए ० तं बहुगं । जं विदियस : तं विसे० । जं तदियस ० तं विसे० । एवं विसे० विसे० जाव उक्क० पुव्वकोडिति । एवमतरोवणिधा समत्ता । १३. परंपरोवणिधाए' पंचिंदिय- सरिण असरिगपज्जत्ताणं हरणं कम्मारणं उक्क० आबाधा मोत्तूरण जं पढमसमए पदेसग्गादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूर दुगुहीणा । एवं दुगुर हीरणा दुगुर हीरा जाव उक्कस्सिया द्विदिति । १४. पंचिंदियाणं सरिण असरिणअपज्जतागं चतुरिंदि० तेइंदि० - बेइंदि० होते हैं वे विशेषहीन । जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवां भागकम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके अंतर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमै कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निचिप्त होते 1 विशेषार्थ - संशी पंचेद्रियसंबंधी दोनों जीवसमासोंके बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका सब स्थितियों में किस क्रमले निक्षेप होता है, इसका पहले विचार कर आये हैं । यहाँ शेष जीवसमासों में विचार किया गया है । सब जीवसमासों में बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंके निक्षेपका क्रम एक ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है, फिर भी सब जीवसमासोंमें निक्षेप क्रमका पृथक्-पृथक् विवेचन करनेका कारण यह है कि प्रत्येक जीवसमासमें आठ कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध अलग-अलग होता है, इसलिये जिसके जिस कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबंध जितना हो वहां तक ही प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेषहीन क्रमसे निक्षेपविधि जाननी चाहिये । मात्र श्रबाधाकालमें निषेकरचना न होनेसे वहां कर्मपरमाणुओंका निक्षेप नहीं होता है, इतना विशेष जानना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई । १३. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अशी पर्याप्तके आठ कर्मोके आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्ममरमाणुओंसे पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाणं स्थान जाकर वे द्विगुणहीन होते हैं अर्थात् आधे रह जाते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक वे द्विगुणहीन द्विगुणहीन होते जाते हैं । १४. पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, श्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एके १, पञ्चसं०, पञ्चम द्वार, गा० ५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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