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जहएण-सामित्तपरूवणा कस्स० ? अण्ण० मणुस० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुह । असादा०अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण. सत्थाणे तप्पाप्रोग्गविसद्ध० । देवायु० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० तप्पाअोग्गसंकिलि० । असंजदा० मदि०भंगो । एवरि तित्थयरं जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० सम्मादि० मणुस० सागार-जा• सव्वविसु० संजमाभिमुह ।।
१३५. चक्खुदं० खवगपगदीओ वेउब्बियलकं मूलोघं । सेसाणं चदुरिंदियपज्जत्तभंगो । अचक्खु. मूलोघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । है। अन्यतर मनुष्य जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर स्वस्थानवर्ती तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणोमवाला जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायु के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेपता है कि तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि मनष्य जो साकारजाग्रत है, सर्व विशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।।
विशेषार्थ-संयतासंयतोंका एक ही गुणस्थान है। यहां संयमके सन्मुख हुए जीवके पाँच ज्ञानावरणादिका सबसे जघन्य स्थितिबन्ध होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी ऐसा मनुष्य कहा है और शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध स्वस्थानमें ही होता है अतः उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्वस्थानवर्ती तिर्यञ्च और मनुष्य कहा है। असं. यतों में जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी मुख्यता है। मत्यज्ञानियों में भी जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका विचार एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा किया है, इसलिए असंयतोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान कहा है। मात्र जिन प्रकृतियोंका एकेन्द्रियोंके बन्ध नहीं होता उन प्रकृतियोंका विचार जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके विचारके समय कर आये हैं उस प्रकारसे करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चोंके या मत्यज्ञानियोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता इसलिए यहाँ इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अलगसे कहा है।
१३५. चक्षुदर्शनवाले जीवों में क्षपक प्रकृतियाँ और वैक्रियिक छहके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी चतु. रिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । अचक्षुदर्शनवाले जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानियोंके समान है।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय जीवोंसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होता है और अचक्षुदर्शन एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होता है। इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मूलमें कही गई विधिके अनुसार बन जाता है। अवधिदर्शनीमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानियों के समान है यह स्पष्ट ही है।
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