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________________ ३१० महाबंधे टिदिबंधाहियारे १३६. [किएण-पील-काउ० अप्पप्पणो पगदीणं असंजदभंगो। णवरि] किएण-णील. तित्थय० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण. मणुस० असंजदस. सव्वविस० । काउ० णेरइ. सव्वविसः । १३७. तेऊए पंचणा-छदसणा-सादावे०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्स-रदि-भयदुगु-देवगदि-पसत्थएक्कत्तीस-उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण. अप्पमत्तसंज० सव्वविसु । थीणगिद्धि०३-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० मणुस. सव्वविसु. संजमाभिमुह० । असादा-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० जह• द्विदि० कस्स० ? अण्ण. पमत्तसंज० तप्पाअोग्गविसुद्ध० । अपच्चक्खाणा०४ जह० हिदि० कस्स० ? अएण. मणुस. असंजद० सागार-जा० सव्वविसु. संजमाभिमुह । पच्चक्रवाणा०४ जह० हिदि. कस्स. ? अएण. मणुस. संजदासंजद सागारजा० सव्वविसु० संजमाभिमुह । इत्थि० १३६. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें अपनी अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग असंयतों के समान है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण लेश्या और नील लेश्यावाले जीवों में तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि है और सर्वविशुद्ध है वह तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। कापोत लेश्यामें जो नारकी सर्वविशुद्ध है वह तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या असंयतोंके होती है और असंयतोंमें जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंकी नरकायु व देवायुकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियोंकी और नरकगति छहकी अपेक्षा असंशियोंकी मुख्यता है, इसलिए इन लेश्याओं में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असंयतोंके समान कहा है । मात्र तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध इन जीवोंके नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य स्थितिवन्धके स्वामीका कथन अलगसे किया है। इतना अवश्य है कि नरकगतिमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध करनेवाले जीवके कृष्ण और नील लेश्या नहीं होती, इसलिए इन लेश्याओंमें तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य कहा है और कापोत लेश्यामें नारकी जीव कहा है। १३७. पीतलेश्यामें पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त इकतीस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अप्रमत्त संयत जीव जो सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो तत्प्रायोग्यविशुद्धपरिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धकास्वामी है । अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि है साकारजागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो संयतासंयत है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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