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________________ २९२ महाबंधे द्विविबंधाहियारे सक० - पुरिसवे ०-हस्स-रदि-भय-दुगु० - मणुसगदि-पंचिदिय० ओरालिय० -तेजा० क०समचदु० ओरालि० अंगो० दज्जरिसभ० - वरण ० ४ मणुसाणु ० -- गुरु ०४ - पसत्यवि० तस ०४ - थिरादिछक्क - णिमि० उच्चा० - पंचंत० जह० डिदि ० कस्स ० १ अण्ण० अस०ि सागार - जा० सव्वविसु० जह० द्विदि० वट्ट० । श्रसादा० - इत्थवे ०णवुस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० - अप्पसत्थ० - थावरादि ० ४ - अथिरादिछक-पीचा० जह० हिदि० कस्स० १ [अ०] सरिणस्स सागार- जा ० तप्पाश्रोग्गविसु ० जह० द्विदि० वट्ट० । दोश्रायु० जह० द्विदि० कस्स ? रण० सरिण० असरिण० सागार - जा ० तप्पा ओग्गसंकिलि ० 3 जह० आबा० जह० द्विदि० वट्ट० । १२०. मणुसेसु खवगपगदीगं मूलोघं । पंचदंस०-मिच्छत्त- बारसक०-हस्सरदि-भय- दुगु० -- मणुसग ० - पंचिंदि० - ओरालिय० – तेजा० क० - समचदु० - ओरालि ० वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंज्ञी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि ४, स्थिर आदि छह और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । दो श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संशी या असंशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है और जघन्य श्राबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह दो आयुओंके अन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त दो प्रकारके होते हैं—संशी और प्रसंशी । संशियोंसे असंशियोंके संख्यातगुणा हीन बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इन्हींकी मुख्यतासे धनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व कहा गया है। मात्र मनुष्यायु और तिर्यश्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त दोनोंमेंसे किसीके भी हो सकता है, इसलिए इन दोनों श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त दोनोंमेंसे कोई भी जीव कहा गया है । १२०. मनुष्यों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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