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उकस्सअंतरपरूवणा
अंतरपरूवणा ६७. बंधंतरं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधंतरं जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालमसंखे । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयुग० उक्क० जह० पुवकोडिदसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० अणंतकालमसंखे० । अणु० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरे ।
विशेषार्थ-इस प्रकरणमें जहाँ जो विशेषता थी,उसका हम स्पष्टीकरण कर आये हैं। साधारणतः सर्वत्र अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण प्राप्त होता है और जहाँ भवस्थिति ही कायस्थिति है,वहाँ तत्प्रमाण प्राप्त होता है। बहुत-सी ऐसी भी मार्गणाएँ हैं, जिनमें भवस्थिति और कायस्थितिका प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, इसलिए वहाँ उस मार्गणाका जो उत्कृष्ट काल हो तत्प्रमाण अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए । मात्र कुछ मार्गणाएँ इस नियमका अपवाद हैं। उदाहरणार्थ,मत्यशान और श्रुताशानका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है,पर इनमें अजघन्य स्थितिबन्ध का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण ही प्राप्त होता है। सो इसका खुलासा सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जान लेना चाहिए । तथा इसी प्रकार सर्वत्र सब कौके जघन्य स्थितिबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालका तथा अजघन्य स्थितिबन्धके जघन्य कालका खुलासा ओघ प्ररूपणाको और बन्धस्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । यहाँ इतना विशेष कहना है कि यहाँ सर्वत्र आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल नहीं कहा है । सो इसका कारण यह है कि जहाँ आयुकर्मका बन्ध सम्भव है,वहाँ आयुकर्म के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपलब्ध होता है। यही कारण है कि इसका कहीं भी निर्देश नहीं किया है।
इसप्रकार बन्धकाल समाप्त हुआ।
अन्तरपरूपणा ९७. बन्धका अन्तरकाल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । सर्वप्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेके बाद पुनः उत्कृष्ट स्थितिवन्ध कमसे कम अन्तमुहूर्त कालके बाद होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । तथा जो संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके एकेन्द्रिय और विकलत्रय पर्यायमें श्रावलिके असंख्यातवें भागमात्र पुगल परिवर्तनकाल तक परिभ्रमण कर पुनः संशी पंचेद्रिय पर्याप्त होकर उक्त कमौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, उसके उक्त सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका
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