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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६८. आदेसेण रइएस सत्तणं कम्माणं उक्क० ओघं । अणुक० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोव० । आयु० श्रघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । वरि अणुकस्स अप्पप्पणो हिदी भाणिदव्वा । ६६. तिरिक्खे ओघं । पंचिंदियतिरिक्ख ० ३ - मणुस ० ३ - देवा याव सव्वट्टत्ति यथासंखाए सत्तण्णं कम्मारणं उक्क० द्विदि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक जह० एग०, उक्क'० [ तिरिण पलिदोवमारिण पुव्वको डिपुधत्तेणन्भहियरिण ] तिि पलिदो पुव्त्रकोडिपु० तेत्तीस सागरो • देवाणं अप्पप्पणी हिंदी० । आयु० श्रघं । ७०. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत मणुस अपज्जत-विगलिंदि० - पंचिंदिय-तसअप - ज्जत्ता० सत्तरणं कम्मारणं उक्क० अणुक्क ० जह० एग०, उक्क० तो ० आयुधं । १० । ४८ गिनाई हैं, उनमें आठों कर्मोंका यह काल अविकल घटित हो जाता है, इसलिये इनके कथनको के समान कहा है । R ६८. देशसे नारकियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। श्रायुकर्म का काल श्रधके समान है । इसी प्रकार सात पृथिवियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए । विशेषार्थ – यहाँ सामान्य से और प्रत्येक नरकमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। सो इसका कारण यह है कि जिस जीवने पूर्व भवमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेके बाद अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया । इसके बाद वह मरकर नरकमें गया और वहाँ निरन्तर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता रहा । इस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है। आगे सर्वत्र अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । ६६. तिर्यञ्चों में श्रधके समान काल है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका 'जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य, पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य, तेतीस सागर और देवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । आयुकर्मका श्रधके समान है । विशेषार्थ - यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय बतलानेका कारण यह है कि विवक्षित पर्यायमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया और दूसरे समय में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके मरकर अन्य पर्यायमें चला गया। इससे यहाँ सर्वत्र स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। शेष कथनका अनुगम पूर्ववत् है । ७०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, विकेलन्द्रिय अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मका श्रोघके समान है । १. मूलप्रतौ उक्क० अनंतकालमसंखेज पोग्गल० तिथिण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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