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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे जहएणयं उक्स्स यं जहएणुकस्सं च । उकस्सए पगदं । दुवि०–ोघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण सव्वत्योवा आयु० उक्कहिदिबं० । यहिदिवं. विसे । णामा-गोदाणं उक्क हिदिबं० संखेज्जगु० । यहिदिबं० विसे० । चदुएणं क. उक्क हिदिबं विसे । यहिदिबं० विसे । मोह० उक्क हिदिवं. संखेज्जगु० । यहिदिवं० विसे ।
२४६. आदेसेण णेइरएमु सव्वत्थोवा आयु. उक्क हिदिबं । यहिदिबं० विसे । णामा-गोदाणं उक्क हिदिवं. असं० गु० । यहिदिवं० विसे । चदुषणं क. उक हिदिवं. विसे० । यहिदिवं० विसे० । मोह० उक हिदिबं० संखेज्जगु० । यहिदिबं० विसे । एवं सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खअफजल-मणुसअपज्ज-सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं पंचिंदिय-तसअपज्ज-ओरालियमि०-वेउव्वियका०असएिण त्ति।
२४७. अोघभंगो तिरिक्ख०४-मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि-ओरालियका०-इत्थि-पुरिस०-णवंस०-कोधादि०४-मदि-सुद-विभंगअसंज-चक्खुदं०-अचक्खुदं-किरण-पील-काउ०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०-भवसि-अब्भवसि०-मिच्छादि-सरिण-आहारग त्ति ।
२४८. सव्वदेवा० णिरयभंगो। णवरि अणुदिस याव सव्वहा त्ति उवरि तीन प्रकारका है-जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है।
२४६. आदेशसे नारकियों में प्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कमौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब नारको, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पांचों स्थावरकाय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी और असंशी जीवोंके जानना चाहिए।
२४७. तिर्यश्च चतुष्क, मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियविक, प्रसद्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभंगवानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पनलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके अोधके समान भङ्ग हैं।
२४८. सब देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे १. मूलप्रतौ उवरि बहुतं. मोह० इति पाठः ।
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