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________________ भूयो द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा १३५ मोह० उक्क द्विदि० विसे । यहिदिबं० विसे । २४६. आहार-आहारमि० सव्वहभंगो। णवरि णामा-गोदा० संखेज्जगु० । वेउव्वियमि० सव्वत्थोवा णामा-गोदा उक्क हिदिबं० । यहिदिबं० विसे० । चदुषणं क० उक्क हिदिबं० विसे । यद्विदिवं. विसे । मोह० उक्क हिदिबं० सं० गु० । यहिदिबं० विसे । एवं कम्मइ०-सम्मामि०-अणाहारग त्ति । णवरि सम्मामि० मोह• उक्त हिदिवं विसे । यहिदिबं० विसे०।। २५०. अवगद० सव्वत्थोवा मोह० उक्त हिदिवं० । यहिदिबं० विसे । णाणाव०-दसणाव-अंतराइ० उक्क हिदिवं० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । णामागोदाणं उक्क हिदिवं असं गु० । यहिदिवं विसे । वेदणी०उक्क हिदिबं०विसे । यहि दिवं० विसे । २५१. आभि०-सुद०-अोधिदं० अट्टएणं क० मूलोघं । णवरि मोह० उक्काहिदिबं० विसे० । यहिदिव० विसे । एवं मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-अोधिदं-सम्मादि०-खइग० वेदग०-उवसम०-सासण त्ति । णवरि उवसमे आयु० णत्थि । लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २४६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ___२५०. अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे छानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २५१. श्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतहानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें आठों कर्मोका भङ्ग मलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उपशमसम्यक्त्वमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। १. मूलप्रतौ खहग० यहि दिबं० देदग इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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