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________________ उकस्स-कालपरूवणा १११ आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० श्रावलियाए असंखेज्जदि० । अणु० सव्वद्धा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं पुढवि-आउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्ते-कायजोगिओरालियका०-ओरालियमि०-कम्मइग०-गवुस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंजद०अचक्खु०-किएण-पील०-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असरिण-आहारप्रणाहारग त्ति । णवरि कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलियाए असंखेज्जदिभागो।। १८८. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं मूलोघो । आयु० उक्कस्स० ओघभंगो। अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख० देवा याव सहस्सार त्ति सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-तस-बादरपुढवि० आउ०-तेउ०-वाउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जत्ता० पंचमण०-पंचवचि०काल है ? सब काल है। शायुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनो, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी, आहारक और अनाहा. रक जीवोंमें काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-एक जीवकी अपेक्षा कालका विचार पहले कर आये हैं। यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार किया गया है। आशय यह है कि नाना जीव अन्तरके बिना पाठों कर्मोकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कमसे कम कितने काल तक और अधि अधिक कितने काल तक बन्ध करते रहते हैं,इसी बातका इस अनुयोगद्वारमें निर्देश किया है। यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है;यह तो स्पट ही है, क्योंकि ओघसे अनन्तानन्त जीव और यहाँ गिनाई गई मार्गणाओंमेंसे प्रत्येक मार्गणावाले यथासम्भव अनन्त या असंख्यात जीव प्रति समय आठों कर्मोंकी उत्कृष्टके सिवा किसी न किसी स्थितिका अवश्य बन्ध करते हैं । उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध काल मूलमें निर्दिष्ट किया ही है । इसका आशय यह है कि जिस स्थितिका जघन्य या उत्कृष्ट जो काल कहा है, उतने काल तक किसी न किसी जीवके उस स्थितिका निरन्तर बन्ध होता रहता है। आगे अन्तरकाल आ जाता है। १८८. आदेशसे नारकियोंमें सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल मूलोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, देव, सहस्रार कल्पतकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब त्रस, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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