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________________ महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे १८६. वेडव्त्रियका० सत्तणं क० जह० अहचोदस० । अज० अह-तेरह० । आयु० जह० अज० अहचोदस० । सासण० सत्तां क० जह० ज० ग्रह-बारह० । आयु० जह० चोदस० । सम्मामिच्छादि० सत्तणं क० जह० अज० ग्रहचोदस० । एवं फोसणं समत्तं । ११० कालपरूवणा १८७. कालं दुविधं - जहरणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो गिद्द ेसोदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तणं क० उक० ट्ठिदिबं० केवचि ० १ जह० उक्क० पलिदोव० संखे० । अणुक्क० द्विदिवं० केवचि० ? सव्वद्धा । एगस ०, वत्स्वस्थानमें सम्भव होनेसे इनकी अपेक्षा जहाँ विहारवत्स्वस्थोनकी अपेक्षा जो स्पर्शन हो,उतना स्पर्शन होता है । इसी बातको ध्यानमें रखकर मूलमें इस स्पर्शनका विशेष रूप से अलग से उल्लेख किया है । शेष सब मार्गणाओं के सम्बन्धमें जहाँ जो विशेष बात कही है, उसे ध्यान में रखकर स्पर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए । १८६. वैकियिककाययोगवाले जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयु कर्मकी जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बड़े चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछकम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ — वैक्रियिककाययोगमें कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। यहां इस अवस्था में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका व आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, अतः इस अपेक्षासे उक्त मार्गणा में यह स्पर्शन नहीं कहा है । किन्तु सासादन में मारणान्तिक समुद्धात के समय भी सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है, इसलिए इसमें सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू कहा है । मात्र मारणान्तिक समुद्धात के समय यहां आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण ही स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ । कालप्ररूपणा १८७. काल दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । उसमें से श्रोत्रकी अपेक्षा सात कर्मोंको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका कितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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