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________________ जहराणकालपरूवणा ६०. इत्थि-पुरिस-णqससत्तएणं क० जह• अोघं । अज. जह• एग०, उक० पलिदोवमसदपुधत्तं । जह• अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । जह. एग०, उक्क अणंतकालमसंखे० । अवगद० सत्तएणं क• जह• ओघं । अज० जह० एगस, उक्का अंतो० । एवं सुहुमसंप० छएणं कम्माणं । ६१. कोधादि४ सत्तएणं क० मणभंगो। ६२. मदि-सुद० सत्तएणं क० जह• जह• एग०, उक्क० अंतो० । अज. ज. अंतो०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। विभंगे सत्तएणं क० जह० जह• उक्क. अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० देमू । आभिणि-सुद० विशेषार्थ-काययोगमें जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी काय स्थितिप्रमाण घटित हो जाता है जो कि अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण उपलब्ध होता है। शेष कथन सुगम है। ६०. स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें सात कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । स्त्रीवेदमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण है । पुरुषवेदमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है। तथा नपुंसकवेदमें जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पदल परिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है। अपगतवेदमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयममें छह कौका काल है। विशेषार्थ-जो जीव पुरुषवेदसे उपशमश्रेणि पर आरोहण करता है, वह उपशमश्रेणिमें मरण कर नियमसे पुरुषवेदी ही होता है, इसलिये इसमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध नहीं होता । यही कारण है कि पुरुषवेदमें सातों कमौके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय नहीं कहा। फिर भी यह काल कैसे प्राप्त होता है। यह घटित करके बतलाते हैं -एक पुरुषवेदी जीव उपशम श्रेणि पर चढ़ा और उतर कर वह सात कर्मोंका अजघन्य स्थितिबन्ध करने लगा। पुनः अन्तर्मुहूर्तके बाद वह उपशमश्रेणि पर चढ़ा और अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें उसने मोहनीयकी तथा सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें उसने शेष छह कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति की। इस प्रकार यदि देखा जाय,तो यहाँ सात कर्मों के अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है । यही कारण है कि पुरुषवेदमें यह काल उक्त प्रकारसे कहा है। शेष कथन सुगम है। ९१. क्रोधादि चारमें सात कमौका उक्त काल मनोयोगियोंके समान है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मनोयोगियोंके सात कौंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल कह पाये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। ९२. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। विभङ्गशानमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। आभिनिबोधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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