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________________ जहण्ण-सामिरापरूवरणा ३०७ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस तप्पाअोग्गसंकिलि। मणुसगओरालि०-ओरालि अंगो०-वजरिसभ०-मणुसाणु० जह० हिदि. कस्स० ? अपण. देव णेरइ. सागार-जा० सव्वविसुद्ध० । देवगदि एवं पसत्यत्तीसं जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. अपुव्व०खवग, परभवि० बंधचरिमे वट्ट० । अप्पचक्खा०४ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. मणुस. असंज. सागार-जा० सव्वविसु० संजमाभिमुह । पच्चक्रवाणा०४ जह• हिदि० कस्स. ? अण्णद. मणुस० संजदासंजद० सागार-जा० सव्वविसु. संजमाभिमुह । मणपज्जव० अोधिभंगो । पवरि देवायु० जह• हिदि० कस्स. ? अण्ण. पमत्तसंज० तप्पाओ०संकिलि । १३३. संजदा० मणपजवभंगो। सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग,वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगतिसे लेकर प्रशस्त तीस प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परभव सम्बन्धी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरण चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य संयतासंयत जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनःपर्ययज्ञानमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानीके समान है। इतनो विशेषता है कि देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-आभिनिबोधिक आदि तीन शान चौथेसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक होते हैं। इनमें क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति भी सम्भव है, इसलिए ३६ प्रकृतियोंका क्षपकोणिके आठवें गुणस्थानमें, ५ का नौवेंमें और १७ का दसर्वे में जघन्य स्वामित्व कहा है । शेष प्रकृतियोंके विषयमें जहां जिनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है और जिनके उनका बन्ध होता है इन दो बातोंको ध्यानमें रखकर उनके जघन्य स्वामित्वका विचार किया है। शेष विशेषताएँ मूलमें कही ही हैं। मनःपर्ययशान ६ छठवें गुणस्थानसे होता है । अतः जितनी प्रकृतियोंका बन्ध इसके होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अवधिज्ञानी जीवके भी छठवें आदि गुणस्थानों में ही प्राप्त होता है, इसलिए मनापर्ययज्ञानमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानी जीवोंके समान कहा है। मात्र देवायु इसका अपवाद है। कारण कि देवाय का जघन्य स्थितिबन्ध अवधिज्ञानीके चतर्थ गणस्थान में होता है और मनःपर्ययशानमें प्रमत्तसंयतके होता है, इसलिए इतनी विशेषता अलगसे कही है। १३३. संयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनापर्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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