SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा १२३. पुढवि०-आउ०-वणप्फदिपत्तेय-वणप्फदिका०-णियोदेसु पंचणागवदंस०-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-मणुसगदि एवं धुवणामाए याव उच्चागो०-पंचतरा. जह• हिदि० कस्स० ? अण्णा बादर० सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्त० सागार-जा० सव्व विसु० । सेसाणं वि एसेव । णवरि तप्पाओग्गविसुद्ध० । दोआयु० ओघ । बादरादीणं एइंदिय०-आदावेण णेदव्वं । एवं चेव तेउ-वाउका । वरि तिरिक्खगदि.'धुवं कादव्वं ।। १२४. तस-तसपजत्तेसु खवगपगदीणं अोघं। णिरय० देवायु० वेउब्वियछर्क च ओघं । दोआयु० जह• हिदि. कस्स ? अएण. बेइंदि तीइंदि० चदुरिंदि. पचिंदि० सएिण. असएिण. पज्जत्तापज्जत्त० तप्पाअोग्गसंकिलि । सेसामो पगदीओ मणुसगदिसंजुत्ताओ बीइंदियो करेदि सागार-जा० सन्चविसुद्धो। असा स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होते रहते हैं और मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव करते हैं, क्योंकि इनका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता। शेष कथन स्पष्ट १२३. पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और मनुष्यगतिसे लेकर जितनी नामकर्मकी ध्रुव प्रकृतियाँ हैं वे सब तथा उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकेजघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और सर्व विशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके भी जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी वही जीव है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी रोधके समान है। इनके बादरादिकमें एकेन्द्रिय जाति और आतप प्रकृतियोंके साथ कथन करना चाहिए । इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यश्चगति चतुष्कको ध्रुव कहना चाहिए । विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका खुलासा कर आये हैं। उसे ध्यानमें रखकर यहां जघन्य स्वामित्व जान लेना चाहिए। १२४. अस और उस पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छह इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पश्चन्द्रिय संशी और पञ्चन्द्रिय असंशो तथा इन सबका पर्याप्त तथा अपर्याप्त जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष मनुष्यगति सहित प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और सर्वविशुद्ध द्वीन्द्रिय जीव है । तथा असातादिक प्रकृतियोंके भी जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला वही द्वीन्द्रिय जीव है, तथा .. मूलप्रतौ सम्वाहि अपज्जत्तीहि इति पारः । २. मूलप्रतौ-गदि० दुवं कादव्वं इति पाठः । ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy